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दोहा ।
पांच हजार प्रमान धनु, उपजत केवलग्यान || अंतरिच्छ प्रभु तन भयौ, ज्यों ससि अंबस्थान ॥५३॥
चौपाई |
प्रकटी केवलरवि किरन जाम । परिफूल्यौ त्रिभुवन कमल ताम || आकास अमल दीसै अनूप । दिसि विदिसि भई सब विमलरूप ||५४॥
सुरलोक बजैं घंटागरिष्ट । तरु करन लगे तहां पुहपविष्ट ।। इंद्रासन कांपे अतिगरीस । आनम्र भये मनिमुकुट सीस ||५५||
आठवाँ अधिकार/ १२१
इत्यादिक बहुबिध चिहन चार । प्रभु केवलसूचक भये सार ॥ तब अवधि जोड़ि जान्यौ सुरेस । छय करे कर्म पारस जिनेस || ५६॥ सिंहासन तजि निज सीस नाय । प्रनमो परोख सुख उर न माय ॥ इंद्रानी पूछै कहहु कंत । क्यों आसन तजि उतरे तुरंत ॥५७॥
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किस कारन स्वामी नयौ सीस । याको प्रतिउत्तर देहु ईस || तब बोले विकसित देवराज । प्रभु उपज्यौ केवलग्यान आज || ५८ ॥ ऐरावतगज सजि सपरिवार । प्रथमेंद्र चल्यो आनँद अपार ॥ बाजे बहु पटह पयान-भेर । सब बरनन करत लगै अबेर ||५९ ॥ ईसानप्रमुख सब स्वर्गनाथ । निजबाहन चढ़ि चढ़ि चले साथ ॥ हरिनाद सुन्यौ जोतिषी देव । चंद्रादि चले तब पंच भेव ||६०||
भावन-घर बाजे संख भूरि । दसबिध सुर निकसे हरष पूरि || वसु विंतर-घर गरजे निसान । यो परिजन सब कीनौं पयान ||६१||
यों चली चतुरबिध सुरसमाज । जिन केवलपूजा करन काज ॥ अंबर तजि आये अवनि माहिं । जहँ समोसरन धुज फरहराहिं ॥६२॥
जो सुरपतिको उपदेस पाय । धनपतिने कीनौं प्रथम आय ॥ वर पंचवरन मनिमय अनूप | जगलछमीको कुलगृह सरूप ||६३॥
* उक्तं च गाथा
जादे केवलणाणे परमोदारं जिणाण सव्वाणं ।
गच्छदि उबरे चाबा पंचसहस्साणि वसुहाओ ।
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