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१२०/पार्श्वपुराण
चौपाई। तब फनेस आसन कंपियौ । जिन उपकार सकल सुधि कियौ । ततखिन पदमावति ले साथ । आयौ जहँ निवसैं जिननाथ ||४२।। करि प्रनाम परदछना दई । हाथ जोरि पदमावति नई ॥ फनमंडप कीनौं प्रभुसीस । जलबाधा व्यापै नहिं ईस ||४३।। नागराज सुर देख्यौ जाम । भाज्यौ दुष्ट जोतिषी ताम || हीनजोग सूधी यह बात । भागि जाय तबही कुसलात ||४४|| अब सब कोलाहल मिट गये । प्रभु सत्तम थानक थिर भये ।। विकलपरहित चिदातमध्यान | करै कर्मछय-हेत-महान ||४५।। सात प्रकृति चौथे गुनठान । पहले नास करीं भगवान || अब ह्यां धर्म-ध्यान-बल धीर । तीन प्रकृति जीती बरबीर ||४६।। प्रथम सुकल पदसौं परनये । खिपकसेनि मारग पर ठये ।। प्रकृति छतीस नवें छय करी । दसवै लोभप्रकृति प्रभु हरी ||४७||
दोहा । एकादसम उलंधिपद, चढ़े बारहैं थान कर्मप्रकृति सोलह तहां, नास करी अवसान ||४८।।
चौपाई। इहिबिध त्रेसठ प्रकृति निबार | घाते कर्म घातिया चार || चैतअंधेरी चौदस जान | उपज्यौ प्रभुके पंचम ग्यान ||४९।। लोकालोक चराचर भाव । बहुबिध परजयवंत सुभाव ।। ते सब आन एक ही बार । झलके केवलमुकुर मंझार ||५०|| भये अनंत चतुष्टयवंत | प्रगटी महिमा अतुल अनंत || दिव्य परम औदारिक देह । कोटि भानुदुति जीती जेह ||५१।। अलौकीक अद्भुत संपदा | मंडित भये जिनेसुर तदा ॥ वचन अगोचर महिमा सार | बरनन करत न पइये पार ||५२॥
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