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ताकी रीत सुनो मतिवंत । सुखमा दुखम कालके अंत ॥ बरखादिककौ कारन पाय । विकलत्रय उपजैं बहु भाय ||३१||
आठवाँ अधिकार/११९
कलपबिरछ विनसैं तिहि बार । बरतै कर्मभूमि-ब्योहार ।। प्रथम जिनेस प्रथम चक्रेस । ताहि समय होहिं इहि देस ॥३२॥ विजयभंग चक्रीकी होय । थोड़े जीव जाहिं सिवलोय || चक्रवर्ति विकलप विस्तरै । ब्रह्मवंसकी उतपति करै ॥३३॥
पुरुष सलाका चौथे काल । अट्ठावन उपजैं गुनमाल || नवम आदि सोलह परजंत । सात तीर्थ मैं धर्म नसंत ||३४||
ग्यारह रुद्र जनम जहँ धरैं । नौ कलिप्रिय नारद अवतरैं | I सत्तम तेईसम गुनवर्ग । चरम जिनेश्वरको उपसर्ग ||३५||
तीजे चौथे काल मंझार | पंचममैं दीसें बढ़वार || विबिध कुदेव कलिंगी लोग । उत्तम धर्म नासके जोग ||३६||
सबर विलाल भील चंडाल | नाहलादि कुलमैं विकराल || कल्की उपकल्की कलिमाहिं । बयालीस हैं मिथ्या नाहिं ||३७||
अनावृष्टि अतिवृष्टि विख्यात । भूमिवृद्धि वज्रागनिपात || ईतभीत इत्यादिक दोष । कालप्रभाव होंहिं दुखपोष ||३८||
दोहा यो त्रिलोक प्रज्ञप्तिमैं कथन कियौ बुधराज || सो भविजन अवधारियौ, संसय मेटन काज ||३९||
गीता । तीसरे कालहँ मुकति साधें, प्रथम तीर्थंकर सही । पुनि तीन तीरथ होहिं चक्री, एक हरि जिनवर वही ||४०||
इस भांति चौथे जुग सलाका पुरुष ऊने अवतरैं । हुंडावसर्पिनिमैं अठावन जीव वासठ पद धरै ||४१||
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