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११८/पार्श्वपुराण
जल थल भयौ महोदधि एम । प्रभु निवसैं कनकाचल जेम ।। दुष्ट विक्रियाबल अविवेक । और उपद्रव करे अनेक ||२१||
छप्पय । किलकिलंत बेताल, काल कज्जल छबि सज्जहिं ।। भौं कराल विकराल, भाल मदगज जिमि गज्जहिं ।। मुंडमाल गल धरहिं, लाल लोयननि डरहिं जन ।। मुख फुलिंग फुकरहिं, करहिं निर्दय धुनि हन हन ।। इहि बिध अनेक दुर्भेष धरि, कमठजीव उपसर्ग किय ।। तिहुँलोक बंद जिनचंद्रप्रति, धूलि डाल निज सीस लिय ||२२||
दोहा । इत्यादिक उतपात सब, वृथा भये अति घोर । जैसे मानिक दीपकौं , लगै न पौन झकोर ।।२३।। प्रभु चित चल्यौ न तन हल्यौ, टल्यौ न धीरज ध्यान ।। इन अपराधी क्रोधवस, करी वृथा निज हान ||२४।। पावक पकरै हाथसौं, अवसि हाथ जलि जाय ।। परके तन लागै नहीं, वाके पुन्य सहाय ।।२५।। प्रानी विषय-कषाय-वस, कौन कौन विपरीत ।। करत हरत कल्यान निज, जलौ जलौ यह रीत ।।२६।। प्रभु अचिंत्य-महिमा-धनी, त्रिभुवनपूजित-पाय || तिनके यह क्यों संभवै, सुर उपसर्ग कराय ||२७।। इहि बिध जो कोई पुरुष, पूंछै संसय राखि || ताके समुझावन निमित, लिखू जिनागम साखि ||२८॥
चौपाई। अवसर्पनि उतसर्पनि काल । होहिं अनंतानंत विसाल || भरत तथा ऐरावत माहिं । रँहटघटीवत आढं जाहिं ।।२९।। जब ये असंख्यात परमान, बीते जुगम खेत भू थान ।। तब हुंडावसर्पनी एक । परै करै विपरीत अनेक ||३०||
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