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आठवाँ अधिकार/११७
चौपाई। वैर भाव छाड्यौ वन जीव । प्रीत परस्पर करें अतीव ।। केहरि आदि सतावै नाहिं । निर्विष भये भुजग बनमाहिं ।।१०।। सील सनाह सजौ सुचिरूप | उत्तरगुन-आभरन अनूप ।। तपमय धनुष धस्यौ निजपान । तीन रतन ये तीखन बान ||११|| समताभाव चढ़े जगसीस | ध्यान कृपान लियौ कर ईस ।। चारित-रंग-महीमैं धीर | कर्म-सत्रु-विजयी वरबीर ।।१२।।
दोहा । स्वामीकी सबपर दया, सबहीके रछपाल || जगविजयी मोहादि रिपु, तिनके प्रभु छयकाल ||१३।।
सोरठा । देखो पौन प्रचंड, दूब न खंडै दूबरी ।। मौटे बिरछ बिहंड, बड़े बड़ो ही बल करें ।।१४।।
दोहा । यों दुद्धर तप करतअति, धर्म ध्यान पदलीन || चार मास छदमस्त जिन, रहे राग-मल-हीन ||१५||
चौपाई। एक दिवस दीच्छाबन जहां । जोगलीन प्रभु निवसैं तहां ।। काउसग्ग तन विगतविरोध | ठाड़े जिनवर जोग निरोध ।।१६।। संवर नाम जोतिषी देव । पूरव कथित कमठ-चर एव ।। अटक्यौ अंबर जात विमान । प्रभु पर रह्यौ छत्रवत आन ||१७|| ततखिन अवधिग्यान बल तबै । पूरव बैर सँभालो सबै ।। कोप्यौ अधिक न थांम्यौ जाय । राते लोयन प्रजुली काय ||१८|| आरंभ्यौ उपसर्ग महान । कायर देखि भजै भयमान ।। अंधकार छायौ चहुंओर | गरज गरज बरखें घन घोर ।।१९।। झरै नीर मुसलोपम धार | वक्र बीज झलकै भयकार || बूड़े गिरि तरुवर बनजाल । झंझा वायु बही विकराल ||२०||
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