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११६/पार्श्वपुराण आठवाँ अधिकार
ज्ञान कल्याणक वर्णन ।
सोरठा । जा प्रभुको जसहंस, तीनलोक पिंजरै बसै || सो मम पाप विधंस, करौ पास परमेस नित ||१||
चौपाई। अब जिन उठे जोग-अवसान । देह हेत उद्यम उर आन ।। परमउदास अधोगत दीठ । सहज सातमुद्रा मनईट ।।२।। दया-नीर-निर्मल-परबाह । गुलर-खेटपुर पहुंचे नाह || लाभ अलाभ बराबर धार । निर्धन धनकौ नाहिं विचार ||३|| ब्रह्मदत्त भूपति बड़भाग । प्रभुकौं देखि बढ्यौ उर राग ।। उत्तम पात्र सकल गुनधाम | करि प्रनाम पड़िगाहे ताम ||४|| हेमासन थाप्यौ नरराय । प्रासुक जल परछाले पाय ।। आठ भांति पूजा विस्तरी । हाथ जोर अंजुलि सिर धरी ।।५।। मन-तन-वायक सुद्ध सरूप । नौ दाता गुन संजुत भूप || सुद्ध अन्न दीनौं परवीन । प्रासुक मधुर दोष-दुख-हीन ||६|| उत्तम पात्र दानविधि करी । तीन भवन कीरति विस्तरी ।। पंचाचरज भये नृपधाम ! फिर स्वामी आये वन-टाम |७|| करै घोर तप साधैं जोग । दरसन करत मिटै सब सोग ।। अचल अंग मुख सोहे मौन । एक चित्त निज पद चिंतौन ||८|| ज्यों समुद्र-जल विगत कलोल । अथवा सुरगिरि-सिखर अडोल || तथा नील मनि-प्रतिमा येह । यों अकंप राजै जिनदेह * ||९|| * उक्तं च - नोकिञ्चित्करकार्य्यमस्ति गमनप्राप्यं न किञ्चिदृशोदृश्यं यस्य न कर्णयोः किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न । तेनालम्बितपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रदृष्टी रहः । सम्प्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानैकतानो जिनः ।
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