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सातवाँ अधिकार/१०९
दोहा । नाग जुगल सुनि जिन-वचन, क्रूर जीव अति निंद ।। देह त्यागि ततखिन भये, पदमावति धरनिंद ।।६७।। नाग जुगलके भागकी, महिमा कही न जाय || जिन-दरसन प्रापति भई, मरन समय सुखदाय ॥६८।।
चौपाई। घर आये श्री पार्सजिनंद । सुर-नर-नेत्र-कमलिनी-चंद ॥ समय पाय तपसी तजि देह । भयौ जोतिषी संवर तेह ।।६९।। देखो जगमैं तप-परभाव । ग्यान बिना बांधी सुरआव || जे नर करें जैनतप सार । तिन्हैं कहा दुर्लभ संसार ||७०|| स्वामी मगन सुखोदधिमाहिं । हर्ष विनोद करत दिन जाहिं ।। प्रभुके इष्ट-वियोग न होय | सोग-सँजोग न कबहीं कोय ||७१।। वाय पित्त कफ जनित विकार | सुपनै होय न सोच विचार ।। जरा न व्यापै तेज न जाय । ना मुखकमल कभी कुम्हलाय ।।७२।। होहि नहीं दुखकारन आन । पुन्य-उदधि बेला भगवान ।। यों सुखभोग करत दिन गये । तब जिन तीस वर्षके भये ।।७३।। नृप जयसेन अजुध्याधनी | भक्ति प्रीत प्रभुसौं अति घनी ।। तुरगादिक बहु वस्तु अनूप । पठई विनय वचन कहि भूप ||७४।। राजदूत चलि आयौ तहां । सभा थान जिन बैठे जहां ।। हेमासन पर सोहैं एम । हिमगिरि-सिखर स्याम घन जेम ।।७५।। देखि दूत रोमांचित भयौ । बहुविध चरन कमलकौं नयौ ।। मान्यौ सफलजन्म निज सार । त्रिभुवनपति परतच्छ निहार ||७६।। धरी भेट जो राजा दई । विनय प्रनाम बीनती चई ।। तब पूंछ तहां त्रिभुवनधनी । संपति नगर अजोध्यातनी ||७७।। कहै दूत कर जुग सिर धार | बरनैं तीर्थंकर अवतार || मोख गये बरनैं तिहिंठाम । सुनि स्वामी चिंतें उर ताम ||७८।।
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