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१०८/पार्श्वपुराण
हरिहर ब्रह्मा तुम ही भये । सकल चराचर-ग्याता ठये ॥ मनै करत उद्धत अविचार । चीरयौ काठ न लाई बार ||५५ ॥
ततखिन खंड भये जुगजीव । जैनी बिन सब अदय अतीव ।। दया-सरोवर जिन तब कहै । तपसी वृथा गरब तू बहै ||५६ ॥
ग्यान बिना नित काया कसै । करुना तेरे उर नहिं बसै || तब सट रोषवचन फिर चयौ । जननी जनकर तपसी भयौ ॥५७॥
करै न मदवस विनय विधान । और उलट खंडै मुझ आन || पंच अगनि साधूं तन दाह । रहूं एकपद ऊरध बाँह ॥५८॥
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भूख प्यास बाधा सब सहूं । सूखे पत्र पारनैं गहूं || ग्यानहीन तप क्यों उच्चरै । क्यों कुमार मुझ निंदा करै ||५९ ॥ तब प्रभुवचन कहे हितकार । तुझ तपमैं हिंसा - अघभार ।। छहों कायके जीव अनेक । नास होंहिं नित नाहिं विवेक ||६०||
जहां जीवबध होय लगार । तहां पाप उपजै निरधार || पाप सही दुर्गति दुख देह । यातैं दयाहीन तप येह ||६१||
ग्यान बिना सब कायकलेस । उत्तम फलदायक नहिं लेस ॥ जैसे तुस खंडन (?) कन छार । यों अजान तप अफल असार ||६२|| अंध पुरुष वन दौमैं दहै । दौर मरै मारग नहिं लहै || त्यों अजान उद्यम करि पचै । भव-दावानलसौं नहिं बचे ||६३||
ऐसे ही किरिया बिन ग्यान । सो भी फलदायक नहिं जान || जथा पंगु लोचनबल धरै । उद्यम बिन दावानल जरै ||६४||
तातैं ग्यान सहित आचार । निहचै वांछित फल दातार ।। इहि बिध जिनमतके अनुसार । करि उत्तम तप यह हठ छार ||६५||
मैं तुझ वचन कहे हितकार । तू अपने उर देखि विचार ||
भली लगै सोई करि मित्त । वृथा मलीन करै मति चित्त ||६६||
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