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सातवाँ अधिकार/१०७
चौपाई। इहिबिध मंदराग जिनराय । निवसैं सब जीवन सुखदाय ।। पूरव कथित कमठचर सीह | पाप करत मानी नहिं चीह ||४३।। मुनि-हत्यावस दुर्गति गयौ । पंचम नरकवास सो लयौ ।। सत्रह जलधि तहां दुख सहे | वचन-द्वार जो जाहिं न कहे ||४४।। थिति पूरन कर छोड़ी ठौर । सागर तीन भम्यौ फिर और ।। पसुगति माहिं विपत बहु भरी । त्रस थावरकी काया धरी ॥४५॥ इहिबिध भयौ पाप अवसान | काहू जन्मक्रिया सुभ ठान || महीपालपुर सोहै जहाँ | महीपाल नृप उपज्यौ तहां ।।४६।। पारसप्रभुकी वामा माय । इनकौ पिता भयौ यह राय ।। पटरानीके प्रानवियोग | उपज्यौ विरह बढ्यौ चित सोग ||४७।। तपसी भेष धस्यौ दुख मान | पंचागनि साधै बनथान ।। सीस जटा मृगछाला संग | भसम पीस लाई सब अंग ॥४८॥ भ्रमत बनारसिके उद्यान । आयौ कष्ट करत बिनग्यान ।। इहि अवसर श्रीपालकुमार | गये सहज बन करन बिहार ||४९|| राजपुत्र बहु सुरगन साथ । गज आरूढ़ दिपैं जिननाथ ॥
कर सुछंद बनकेलि अनूप | चले नगरकौं आनंदरूप ||५०|| • देख्यौ मगमैं जननी-तात । तपै पंचपावक-तप गात ||
सो समीप प्रभुकौं अविलौय । चिंतै चित रोषातुर होय ||५१।। मैं समीप कुलवंत महंत । जननी-पिता पूज सब भंत || अहो कुमरके यह अभिमान | विनय प्रनाम करै नहिं आन ॥५२।। इतने ईंधन कारन जान । लकड़ी चीरन लग्यौ अयान ।। हाथ कुल्हाड़ी लीनी जबै । हितमित वचन चये प्रभु तबै ।।५३।। भो तपसी यह काठ न चीर | यामै जुगल नाग हैं बीर || सुनि कठोर बोल्यौ रिस आन । भो बालक तुम ऐसो ग्यान ||५४||
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