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११०/पार्श्वपुराण
बेली चाल । सुनि दूत वचन वैरागे । निज मन प्रभु सोचन लागे || मैं इंद्रासन सुख कीनैं । लोकोत्तम भोग नवीनैं ।।७९।। तब तृपति भई तहां नाहीं । क्या होय मनुषपद माहीं ।। जो सागरके जलसेती । न बुझी तिसना तिस एती ।।८०।। सो डाभ-अनीके पानी । पीवत अब कैसे जानी ।। ईंधनसौं आगि न धापै । नदियौं नहिं समुद समापै ।।८१।। यों भोगविषै अतिभारी । तृपते न कभी तनधारी ।। जो अधिक उदय ये आवै । तौ अधिकी चाह बढ़ावै ।।८२।। जो इनसौं तृपति विचारै । सौ वैसानर घृत डारै ।। इन सेवत जो सुख पावै । सो आकौं आंब उम्हावै ।।८३।। ये भीम भुजंग सरीखे । भ्रम-भाव-उदय सुभ दीखे ।। चाखत हीके मुख मीठे । परिपाक समय कटु दीठे ||८४|| ज्यों खाय धतूरा कोई । देखै सब कंचन सोई ।। धिक ये इंद्री-सुख ऐसे । विषबेल लगे फल जैसे ||८५॥ इनही वस जीव अनादी । भव-भाँवर भ्रमत सवादी ।। इन ही वस सीख न मानै । नानाविध पातक ठानै ||८६।। थिर जंगम जीव संघारै । इनके वस झूठ उचारै ।। पर चोरीसौं चित लावै । परतिय संग सील गमावै ।।८७|| परिग्रह-तिसना विस्तारै । आरंभ उपाधि विचारै ।। इत्यादि अनर्थ अलेखै । करि घोर नरकदुख देखे ||८८|| ये ही सुख पर्वतकेरे । जग फोरन वज्र बड़ेरे ।। ये ही सब दोष भंडारे । धन-धर्म-चुरावनहारे ||८९।। मोही जन मोहैं योंहीं । ये आदर-जोग न क्योंहीं ।। इनसौं ममता तज दीजै । पर त्यागत ढील न कीजै ।।९०।। '
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