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सातवाँ अधिकार/१०५
प्रथम सार-संहनन-सरूप | इंद्र-चंद्र-मनहरन अनूप || बिनाहेत तन सहज सुवास । प्रिय-हित-वचन मधुर मुख जास ।।२३।। अतुलदेह-बल धरत महान । सहस अठोतर लच्छनवान ।। तिनके नाम लिखौं कछु जोय | पढ़त सुनत सुखसंपति होय ||२४||
हरिगीत । श्रीवच्छ संख सरोज स्वस्तिक, सक्र चक्र सरोवरो । चामर सिंहासन छत्र तोरन, तुरगपति नारी नरो । सायर दिवायर कल्पबेली, कामधेनु धुजा करी ।। वरवज्रवान कमान कमला, कलस कच्छप केहरी ।।२५।। गंगा गऊपति गरुड़ गोपुर, बेणु बीणा बीजना । जुगमीन महल मृदंगमाला, रतन दीप दिपै घना ।। नागेंद्र-भुवन विमान अंकुस, बिरछ सिद्धारथ सही । भूषन पटंबर हट्ट हाटक, चंद्र चूड़ामनि कही ।।२६।। जम्बू तरोवर नगर सूवस (?) बाग जन-मन-भावना । नौनिधि नछत्र सुमेरु सारद, साल खेत सुहावना ।। ग्रह मंगलाष्टक प्रातिहारज, प्रमुख और विराजहीं ॥ परमित अठोतर सहस प्रभुके, अंग लच्छन छाजहीं ||२७|| अंतर अनंती अतुल महिमा, कथन दूर रहो कहीं । बहिरंग गुनथुति करन जगमैं, सकसे समस्थ नहीं ।। अब और जनकी कौन गिनती, दीन पार न पावना । पर पासप्रभुकी सुजस-माला, पहिरि दास कहावना ||२८||
दोहा । सहस अटोतर लछन ये, सोभित जिनवरदेह । किधौं कल्पतरुराजके, कुसुम विराजत येह ॥२९॥
चौपाई। सुभ परमानूमय जिन अंग । नीलबरन नौ हाथ उतंग ॥ छबि बरनत नहिं पावैं ओर । त्रिभुवनजन-मन-मानिक-चोर ||३०||
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