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१०४/पार्श्वपुराण
कबहीं रतन-रेत कर लेत । करै केलि सुरकुमरसमेत ।। कबहीं माय बिन रुदन करेय । देखें फेरि विहँसि हँस देय ||११|| कबहीं छोड़ि सचीकी गोद | जननी-अंक जायँ मनमोद ।। मातासौं मानैं अति प्रीति । बाल अवस्थाकी यह रीति ||१२|| यौं जिन बालक लीला करै । त्रिभुवनजन-मन-मानिक हरै ।। क्रमसौं बालभारती नाम | श्रीमुखकमल लसी अभिराम ||१३|| अनुक्रम भई अंगबढ़वार | तब त्रिभुवनपति भये कुमार || निरुपम कांति कला विग्यान । लावन रूप अतुल गुनथान ||१४|| मति-श्रुति-अवधि-ग्यानबल देव । जानैं सकल चराचर भेव ।। सोमसुभाव सहज उपसंत । निर्मल छायक दरसनवंत ||१५|| इहिबिध आठ बरसके भये । तब प्रभु आप अनुव्रत लये ।। देवकुमार रहैं संग नित्त । ते छिन छिन रंजै जिन-चित्त ।।१६।। कबहीं गज तुरंग तन धरैं । तिनपै चढ़ि प्रभु जन-मन हरै ।। कबहीं हंस मोर बन जाहिं । तिनसौं जगपति केलि कराहिं ।।१७।। कबहीं जलक्रीड़ाथल गमैं । कबहीं बनबिहारभू रमैं ।। कबहीं करें किंनरी गान । सो प्रभु सुजस सुनैं निज कान ||१८|| कबहीं निरत ठवै सुर-नार | देखें जिन लोचन सुखकार || कबहीं काव्यकथारस ठान । करै गोठ जिन बुधि बलवान ||१९|| बिना सिखाये बिन अभ्यास | सब विद्या सब कलानिवास ।। यों सुख अनुभव करत महान । भये पास-जिन जोबनवान ||२०||
दोहा । संपूरन जोबन समय, प्रभुतन सोहै एम ।। सहज मनोहर चांदकी, सरद-समय छबि जेम ||२१|| ..
चौपाई। प्रभुके अंग पसेव न होय | सहज सदा मलवरजित सोय || उज्जलवरन रुधिर जिमि खीर | सु समचतुरसंठान सरीर ||२२||
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