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१०२/पार्श्वपुराण
बलयाकृति है झलकै सोय । चक्राकार अगनि जिमि होय ।। छिनमैं एक छिनक बहुरूप । छिन सूच्छम छिन थूलसरूप ।।११९।। छिनमैं निकट दिखाई देय । छिनमैं दूर देह धर लेय ।। छिन आकासमाहिं संचरै । छिनमैं निरत भूमि पर करै ||१२०।। छिन छूवै तारावलि जाय । छिनक चंदसौं परसै काय ।। इंद्रजालवत यों अमरेस । दरसाई निज रिद्धि विसेस ||१२१॥ हाथ अंगलिनपै अपछरा | नाचैं रूप रतनकी धरा || अंग अंग भूषन झलकाहिं । विकसत लोचन मुख मुसकाहिं ।।१२२।। निरत भेदबिधि धारै पांव | करै कटाच्छ दिखावें भाव || बहुबिध कला प्रकासैं सार । सुरकामिनि दामिनि-उनहार ||१२३।। तिनसंजुत हरि सुरतरु एम । कलपलता-गनबेढ्यौ जेम || यो नाटकबिधि ठान अनूप । तिहुंजग सक्र किये सुखरूप ।।१२४।। स्वामि-जनम-अतिसय-परताप | जिनवर-पिता सभापति आप || इंद्र महानट नाचै जहां । तिस अवसर-बरनन बुधि कहां ||१२५॥ तब तहां मातपिताकी साख । पारस नाम सकल सुर भाख || राखि सुरासुर सेवा-जोग । चले देव सब साधि नियोग ||१२६।।
दोहा । इहिबिध इंद्रादिक अमर, जन्मकल्यानक ठान ।। बहुबिध पुन्य उपायकै, पहुंचे निज निज थान ||१२७।।
हरगीति । इंद्रादि जन्म-सनान जिनकौ, करन कनकाचल चढ़े । गंधर्व देवन सुजस गायौ, अपछरा मंगल पढ़े ।। इहबिध सुरासुर निज नियोगै, सकल सेवा-बिधि ठई । ते पासप्रभु मुझ आस पुरवो, सरन सेवकने लई ।।१२८॥ इतिश्रीपार्थपुराणभाषायां जिनेन्द्रजन्मोत्सववर्णनं नाम
षष्ठोऽधिकारः ।
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