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१००/पार्श्वपुराण
दोहा । इहि बिध इंद्रादिक अमर, सर-पदवी-फल लेय || जन्म-न्हौन-विधि कर चले, मानौं निज सुभ श्रेय ।।९३।। जन्ममहोच्छव देख कर, सुरपतिकी परतीत ।। बहु सुर सरधानी भये, तजि सरधा विपरीत ।।९४||
चौपाई। तब सब देव जनमपुर थान । पूरवली बिधि कियौ पयान ।। चढ्यौ इंद्र ऐरावत सीस | गोद लिये त्रिभुवनपति ईस ।।९५॥ पूरबवत दुंदभि धुनिगाज । वे ही गीत निरत सब साज || आये जय जय करत असेस । पिताभवन कीनौं परवेस ||९६।। मनिमय आंगनमैं हरि आप । हेम-सिंहासन पर प्रभु थाप || अस्वसेन भूपति तिहिं बार । देख्यौ नंदन नयन पसार ॥९७।। तेजपुंज निरुपम छबि देह । रोमांचित तन बढ्यौ सनेह ।। माया नींद सची तब हरी । जिन-जननी जागी सुखभरी ।।९८।। भूषन-भूषित कांति विसाल | भर लोयन निरख्यौ जिनबाल || अति प्रमोद उर उमग्यौ तबै । पूरन भये मनोरथ सबै ।।९९।। तब सुरेस रोमांचित काय | मात पिता पूजे मन लाय ।। भूषन वसन भेट बहु धरी । हाथ जोरि जुग थुति विस्तरी ।।१००।। तुम जगमैं उदयाचल भूप । पूरब दिसि देवी सुचिरूप ।। उदय भये त्रिभुवन-रवि जहां । तुम महिमा वरनन बुधि कहां ।।१०१।। धनि धनि अस्वसेन भूपाल । जिनके जगगुरु जनम्यौ बाल || कीरतबेल अधिक तुम बढ़ी । तीन-लोक-मंडप सिर चढ़ी ।।१०२।। धनि वामादेवी जगमाय । जिन जायौ नंदन जगराय ।। तीन-लोक-तिय-सृष्टि-सिंगार | धनि जननी तेरो अवतार ||१०३।। तुम सम जगमैं और न आन । जिनदेवल सम पूज्य प्रधान || यो थुतिकरि हरि हिये प्रमोद । बाल-दिवाकर दीनौं गोद ||१०४।। कही सकल पूरबली कथा । मेरु-महोच्छव कीनौं जथा ।। तब निज नगरवि भूपाल । जन्म उछाह कियौ तिहिंकाल ||१०५।।
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