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________________ कीर्तिकलाख्यो हिन्दीभाषानुवादः १४९ होजाने से भव-परलोक का भङ्ग होजायगा । क्यों कि कृतकर्म का फल ही भव है। यदि अकृतकर्म का फलभोग माना जाय तो मोक्ष का भङ्ग हो जायगा । अकृतकर्म का फलभोग हेतु के विना होगा, इसलिये उसका निवारण नहीं हो सकता । तथा आत्मा ज्ञान आदि सब क्षणिक होने के कारण कोई भी बद्ध नहीं रहेगा, तो मोक्ष किस का होगा ? । तथा आत्मा के क्षणिक होने के कारण अनुभव करनेवाला तत्काल ही नष्ट हो जायगा, तो स्मरण किस को होगा ? । क्यों कि जिसको अनुभव होता है उसको ही स्मरण भी होता है । इसलिये क्षणिकत्वपक्ष में स्मृतिभङ्गदोष भी होता है ।) ॥ १८ ॥ (बौद्ध लोग कृतप्रणाशादिदोषों का उद्धार करते हुए कहते हैं कि-" पदार्थ मात्र क्षणिक हैं। किन्तु प्रत्येक पदार्थ की क्षणपरम्परा होती है, जिसको क्षणसन्तान कहते हैं। जैसे-घट प्रथम क्षण में उत्पन्न होकर नष्ट होजाता है, उसके समान ही दूसरा घटक्षण होता है, किन्तु यह क्षण अत्यन्त सूक्ष्म है, इसलिये उसकी उत्पत्ति या विनाश का प्रत्यक्ष नहीं होता है, ' तथा पदार्थ स्थायी है ऐसी प्रतीति होती है। चूंकि घट की वासना उन क्षणों मे रहती है, इसलिये घटक्षणसन्तान में एकत्व (अभेद) का आभास होता है, या उस घटक्षणसन्तान को एक मानते हैं। ऐसी स्थिति में कर्मक्षण का सन्तान भी एक है, तथा कर्मफलभोग से उस सन्तान का सर्वथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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