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________________ १५० अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः नाश होजाता है, जिससे दूसरे सदृश क्षण उत्पन्न नहीं होते । इसलिये कृतकर्म का फलदिये विना ही नाश नहीं सिद्ध होता । इस प्रकार कृतप्रणाश दोष के उद्धार से उक्तदोषमूलक भवभङ्गदोष अपने आप ही हट जाता है। तथा कृतप्रणाशदोष नहीं रहने से अकृतकर्मभोग भी नहीं कहा जा सकता । तथा तन्मूलक मोक्षभङ्ग दोष का भी उद्धार होजाता है। स्मृतिभङ्गदोष भी नहीं है। क्यों कि आत्मक्षणसन्तान एक है, तथा पूर्वपूर्व अनुभवों की वासना उस क्षणसन्तान में रहती है। इसलिये स्मरण होता है। तथा जिस क्षणसन्तान को अनुभव हुआ है, उसको ही स्मरण भी होगा"। किन्तु यह समाधान युक्तियुक्त नहीं। क्यों कि-वासना तथा क्षणसन्तान में यदि अभेद माना जाय तो-वासना या क्षण सन्तान दोनों में से कोई एक ही रहा। अभिन्न वस्तु में द्वित्वसङ्ख्या नहीं रह सकती। यदि दोनों में भेद माना जाय तो वासना भी क्षणिक होगी, उसके क्षणसन्तान में भी अभेद के लिये वासनान्तर की कल्पना करनी पड़ेगी। इसप्रकार अनवस्था हो जायगी। यदि भेद या अभेद दोनों में से कोई एक भी पक्ष नहीं मानाजाय, तो बैद्धों के मत में कोई तीसरा पक्ष है नहीं । इसलिये क्षणसन्तान तथा वासना दोनों ही अवस्तु हो जायंगे। इसलिये-) भेद, अभेद तथा अनुभय (दोनों में से एक भी नहीं) पक्ष में वासना तथा क्षणसन्तान यह दोनों सिद्ध नहीं होते। हे जिनेन्द्र ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002680
Book TitleDvantrinshikadwayi Kirtikala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherBhailal Ambalal Shah
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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