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श्रीमद् राजचन्द्र
है और बहुत संभव है कि उस मानकी इच्छासे भी कभी ऐसी वृत्ति हो सकती है; परन्तु इसकी परीक्षाके लिए आत्माको हमने बहुत बार तपा कर देखा तो जान पड़ा कि उस मानका होना ऐसी दशा में बहुत कम संभव है; और यह दृढ़ विश्वास है कि सत्ता में वह कुछ होगा भी तो नष्ट हो जायगा । आत्मामें यह निश्चय है कि यदि शरीरके नष्ट हो जानेका विश्वास भी हो जाय तब भी बिना पूर्ण योग्यता प्राप्त किये मूलमार्गका कभी उपदेश न करना । इसी एक बलवान् कारणसे परिग्रहादिके त्याग करनेका विचार उठा करता है । मुझे यह विश्वास है कि यदि वैदिक धर्मका प्रचार करना हो या उसकी स्थापना करनी हो तो मेरी यह दशा उस काम के योग्य है; परन्तु जिनप्रणीत मार्गके स्थापन करने की योग्यता अभी मुझमें नहीं है; तथापि जो भी कुछ योग्यता है, इतना अवश्य है, कि वह कोई खास प्रकारकी योग्यता है ।"
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" हे नाथ, या तो धर्मोन्नति के विचार सहज ही शान्त हो जायँ या वे कार्यमें अवश्य ही परिणत हों । परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि उनका कार्य-रूप में परिणत होना बहुत ही दुष्कर है । क्योंकि छोटी छोटी बातों में लोगों का बड़ा मतभेद है और उनका मूल बहुत ही गहरा चला गया है । लोग मूलमार्ग से लाखों कोस दूर पड़ गये हैं, इतना ही नहीं किन्तु उनमें मूलमार्गकी जिज्ञासा उत्पन्न करना भी अब बहुत कालकी अपेक्षा रखता है, इस लिए कि दुराग्रह आदिके कारण उनकी दशा जड़ प्रधान हो रही है।"
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इन उन्नतिके साधनोंका स्मरण करता हूँ
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