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________________ परिचय । को प्राप्त कर सकते हैं। और दया आदिका बहुत उद्योत हो सकता है। इस स्थितिके देखनेसे चित्तमें विचार उठते हैं कि कोई इस कामको करे तो बहुत ही अच्छा हो; परन्तु दृष्टि देनेसे ऐसा कोई पुरुष दिखाई नहीं पड़ता जो इस कामको कर सके। दृष्टि इस कामके लिए लेखकको कुछ योग्य समझती है; परन्तु इसका तो जन्मसे ही यह लक्ष्य रहा है कि इसके जैसा जोखम भरा एक भी काम नहीं है और इस लिए जहाँ तक स्वयं इस कार्यके करनेकी योग्यता न आ जाय तब तक इसकी इच्छा मात्र भी करना उचित नहीं है । और बहुधा करके अब तक इसी प्रकारकी प्रवृत्ति की गई है । मूलमार्गका थोड़ा-बहुत स्वरूप कुछ लोगोंको समझाया है; तथापि किसीको भी एक व्रत तथा प्रत्याख्यान-त्याग-धारण नहीं कराया और न किसीसे यह कहा कि तुम हमारे शिष्य हो आर हम तुम्हारे गुरु हैं । कहनेका मतलब यह है कि सर्व-संग-परित्याग किये बाद सहज स्वभावसे ही इस कार्यमें प्रवृत्ति हो तो इसे करना; और ऐसी ही मनोभावना है। इस प्रवृत्तिके लिए कोई खास आग्रह नहीं है। मान अनुकम्पा तथा ज्ञान-प्रभावके कारण यह वृत्ति जाग्रत हो जाती है। अथवा कुछ अंशमें यह वृत्ति अंगमें विद्यमान भी है; तथापि विश्वास है कि वह अपने वशमें है। इसी प्रकार सर्व संग-परित्याग आदि गुण हों तो हजारों मनुष्य मूलमार्गको प्राप्त कर सकते हैं और हजारों इस श्रेष्ठ मार्गकी आराधना करके सद्गति लाभ कर सकते हैं । यह हमसे बनना संभव भी है। हममें वह त्याग शक्ति भी है जिसे देख कर हजारों प्राणी हमारे साथ साथ त्याग-वृत्ति धारण कर सकते हैं। धर्म-स्थापन करनेका मान बहुत बड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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