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परिचय।
ज्ञान-बीजके स्वरूपका निरूपण मूलमार्गके अनुकूल स्थान स्थान पर हो। स्थान स्थान पर इस बातका प्रचार हो कि मत-भेदसे कुछ कल्याण नहीं हो सकता।
लोगोंके ध्यानमें यह बात आवे कि प्रत्यक्ष सद्गुरुकी आज्ञा ही धर्म है। द्रव्यानुयोग-आत्म-विद्या-का प्रकाश हो । साधुजन त्याग-वैराग्यमें विशेषतया भाग लें। नव तत्त्वका प्रकाश हो। साधु-धर्मका प्रकाश हो । श्रावक-धर्मका प्रकाश हो। विचारशीलता फैले। सब जीवोंको इन बातोंकी प्राप्ति हो । सं० १९४८ सावन विदी १४ के एक पत्रमें उन्होंने लिखा थाः
"जब तक हमारा यह उपाधि-योग दूर न हो जायगा तब तक हमने इस विषयमें मौन रहना या उस पर कुछ विचार न करना ही उचित समझा है कि किस प्रकारके सम्प्रदायको परमार्थका कारण कहना । अर्थात् इस प्रकारके विचार करनेमें हमारी बड़ी उदासीनता है।" श्रीमद् राजचंद्रने इसी प्रकारका उत्तर कई जगह दिया है । इतना ही नहीं, किन्तु उनका यह प्रयत्न था कि जहाँ तक बन पड़े लोगोंसे परिचय भी न बढ़ाया जाये । वे अपने स्नेही जनोंसे यह कहते रहते थे कि मेरा नाम, स्थान आदि किसीको न बताया जाय; और इसी प्रकार लिखते रहते थे। सं० १९४७ माघ विदी सप्तमीके एक पत्र में उन्होंने लिखा था कि "चाहे कोई मुमुक्षु हो उसे मेरा नाम आदि कोई बात न बतलाना । इस
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