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________________ ७४ श्रीमद् राजचन्द्र -- रूपसे । जहाँ तक समझमें आता है जैनमार्गका सम्प्रदाय - रूपसे पुनरुद्धार करनेसे उसे अधिक जन ग्रहण कर सकेंगे; और दर्शन - रूप से उद्धार करने पर उसे बहुत थोड़े - विरले जन ही ग्रहण करेंगे । यदि यह माना जाय कि जिन भगवान्ने अपने अभिमत मार्गका निरूपण किया था तो यह असंभव है कि उन्होंने उसका निरूपण सम्प्रदाय के रूपमें किया हो । कारण उसकी रचना साम्प्रदायिक रूप से होना कठिन है । और दर्शनके रूपमें उसका निरूपण करनेसे यह विरोध आता है कि वह बहुत थोड़े जीवोंका उपकार कर सकेगा । जो बड़े पुरुष हुए हैं वे पहले से ही अपने स्वरूपको समझ लेते थे और भावी बड़े कार्यके बीज तभीसे अव्यक्त-रूपसे बोते रहते थे । अथवा अपना आचरण ऐसा रखते थे जिसमें कोई प्रकारका विरोध न आता ।" श्रीमद् राजचंद्र के इन विचारों परसे जान पड़ेगा कि वे अपनेमें जैन - मार्गके पुनरुद्धार करनेकी शक्ति मानते थे; और इसी कारण उन्होंने उक्त विचारोंमें जागृति दिखलाई है । यह बात कुछ तो ऊपर बतलाई जा चुकी है कि इस प्रकार के विचार उनमें कबसे उत्पन्न हुए; अब वही बात कुछ विस्तार के साथ यहाँ लिखी जाती है । उनके लेखोंका जो संग्रह जनताके सामने रक्खा गया है उसके देखनेसे जान पड़ता है कि उनमें इस प्रकारकी जिज्ञासा तो तबहीसे प्रकट हो गई थी जब कि उन्होंने 'बालबोध - मोक्षमाला' लिखी थी। क्योंकि उसमें उन्होंने जो 'सामान्य मनोरथ' लिखा है वह उनके इस महत्त्वाकांक्षाका प्रथम चिह्न है । तब यह प्रश्न सहज ही हो सकता है कि जब इतनी छोटी उमरसे ही उनकी ऐसी महत्त्वाकांक्षा थी तब उन्होंने अपनी मृत्यु होने तक इस कामको क्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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