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परिचय ।
इस प्रकार श्रीमद् राजचंद्रकी जैनधर्मके पुनरुद्धार करनेकी प्रबल इच्छा थी; परन्तु इस विषयमें यह विचार करना उपयोगी होगा कि उनमें इस विषयके कार्य करनेकी शक्ति भी थी या नहीं। इतना तो सच है कि कोई मनुष्य जब किसी कामके करनेका विचार करता है उसमें ऐसी बुद्धि तब ही उत्पन्न होती है जब कि उस कार्यके करनेकी उसमें थोड़ी-बहुत शक्ति होती है । श्रीमद् राजचंद्रकी डायरीके देखनेसे जान पड़ता कि जैनधर्मके पुनरुद्धारके सम्बन्धमें किस प्रकारका प्रयत्न करना चाहिए, इस विषयमें उन्होंने जगह जगह अनेक प्रकारकी योजनायें और विचार प्रकट किये हैं। उनकी डायरीसे एक अंश यहाँ उद्धृत किया जाता है, उस परसे जाना जा सकेगा कि वे अपनेमें जैनधर्मके पुनरुद्धारकी शक्ति मानते थे। इसी प्रकार वे इस विषयमें भी विचार किया करते थे कि जैनमार्गका पुनरुद्धार 'दर्शन'-रूपसे किया जाय अथवा 'सम्प्रदाय'-रूपसे । मतलब यह कि उसे जनताके सामने अब दर्शनके रूपमें लाया जाय या सम्प्रदायके रूपमें । वह अंश यह है
"जिनके द्वारा मार्गोंकी प्रवृत्ति हुई है उन महापुरुषों में विचारशक्ति और निर्भयता आदि गुण भी महान् थे । एक राज्यके प्राप्त करनेमें जितने पराक्रमकी आवश्यकता पड़ती है उसकी अपेक्षा अपूर्व विचारयुक्त धर्म-परम्पराके प्रवर्तन करने में कहीं अधिक पराक्रमकी आवश्यकता है। इस प्रकारकी शक्ति यहाँ थोड़े समय पहले दिखाई पड़सी थी; परन्तु इस समय उसमें विकलता आ गई है। यह विचारने योग्य बात है कि इसका कारण क्या है । यह भी विचारने योग्य है कि इस कालमें धर्मकी प्रवृत्ति दर्शन-रूपसे जीवोंके लिए कल्याणका कारण होगी कि सम्प्रदाय
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