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________________ परिचय । ७५ नहीं किया ? इसका खुलासा करना आवश्यक जान पड़ता है । यह ऊपर लिखा जा चुका है कि उनकी इच्छा तब तक इस कामके करनेकी न थी जब तक कि उनकी ऐसी दशा न हो जाय कि उनका आत्मोद्धारका प्रयत्न उनकी आत्म-दशाका घातक न हो । उनकी इच्छा तब ही इस कामके शुरू करनेकी थी जब कि उन्हें यह प्रतीत हो जाता कि उनका आत्मोद्धारका प्रयत्न उनकी आत्म-दशाका घातक न होगा । इसीके साथ यह भी लिखा जा चुका है कि उनका विश्वास था कि सर्व-संग-परित्याग किये ही ऐसे मार्गोद्धारका कार्य हो सकता है; और सर्वसंग-परित्याग तब ही करना उचित है जब कि सब प्रकारकी सांसारिक सम्पत्ति स्वयं ही प्राप्त की हो । इस प्रकार क्रम-पूर्वक इस उद्धारके काम करनेकी उनकी इच्छा थी, जिसके कि. उन्होंने 'अव्यक्त' बीज बोये थे। बहुतसे लोगोंने उनसे इस बातके लिए प्रेरणा की थी कि वे अपने क्रम-पूर्वक काम करनेके निश्चयको छोड़ कर शासनके उद्धारका काम करें; परन्तु वे अपने निश्चय पर अटल बने रहे। इस बातके कुछ प्रमाण पेश किये जाते हैं कि कई लोगोंने ऐसे प्रयत्न किये थे कि जिनसे श्रीमद् राजचंद्र अपने निश्चयको छोड़ दें । एक जिज्ञासुने जब उन पर अधिक दबाव डाला तब उन्होंने सं० १९४७ पौष सुदी १० के अपने एक पत्रमें लिखा थाः-- ___आप परमार्थके लिए जो परम आकांक्षा रखते हो वैसी ही यदि ईश्वरेच्छा हुई तो किसी अन्य अपूर्व मार्गसे वह पार पड़ सकेगी । भ्रान्तिके कारण जिनका लक्ष्य परमार्थकी ओर जाना दुर्लभ है उन भारतीय मनुष्योंके प्रति परम कृपालु परमात्मा परम कृपा करेंगे; परन्तु अभी यह नहीं जान पड़ता कि थोड़े समय तक उनकी ऐसी इच्छा हो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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