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________________ श्रीमद् राजचन्द्र तो पण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो, प्रभु आज्ञाए थाशुं तेह स्वरूप जो। अपूर्व अवसर०॥ इसका भाव यह है कि सर्वज्ञ भगवान्ने जिस स्वरूपको अपने ज्ञानमें देखा, उसे वे स्वयं भी नहीं कह सके तब अन्य जनोंकी वाणी उसे कैसे कह सकती है। वह स्वरूप मात्र अनुभव-गोचर ही है। वह अपूर्व अवसर अब आयगा कि जब मैं बाह्याभ्यंतर निग्रंथ बनूँगा! इस परम पदकी प्राप्तिका मैंने ध्यान किया; परन्तु उसके करनेकी शक्ति न होनेके कारण इस समय तो वह केवल मनोरथ मात्र है । तब भी राजचंद्रके मनमें यह निश्चित है कि प्रभुकी आज्ञासे उस स्वरूपको मैं अवश्य प्राप्त कर सकूँगा-उस रूप हो सकूँगा। इस परसे स्पष्ट है कि उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि मुझमें पूर्ण आत्मावस्था प्रगट हो गई है। हाँ, इतना सत्य है और प्रसंग प्रसंग उनके कहे हुए वाक्योंसे भी यह बात जानी जाती है कि किसी खास सीमा तक उन्हें आत्म-स्वरूपका अनुभव हो गया था। उक्त पद्योंमें ही जो यह कह गया है कि 'अनुभव-गोचर मात्र रह्यं ते ज्ञान जो' इसे ध्यानमें रख कर सब पद्योंका पृथक्करण किया जाय तो यह जाना जा सकता है कि उनका अन्तरंग-विश्वास इसी दिशामें था । अब इस बातके अन्वेषणकी आवश्यकता है कि उनका वह आत्म-स्वरूपका अनुभव किस सीमा तक था। और इसके लिए उनके विचारोंका अध्ययन ही सबसे अच्छा उपाय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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