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________________ श्रीमद् राजचन्द्र सकेगा कि जिस प्रकार वैज्ञानिक लोग अपने मन पर किसी प्रकारके धार्मिक विचारोंका प्रभाव न पड़ने देकर काम करते हैं उसी प्रकार श्रीमद राजचंद्रने भी धार्मिक विचारोंके प्रभावमें न पड़ कर ही प्रत्येक विषयका विचार किया था । लेखक यह बात कह कर श्रीमद् राजचंद्रकी ख्याति नहीं चाहता है कि उन्हें आत्म-स्वरूपका अनुभव हो गया था अथवा उन्हें यह ज्ञान हो गया था कि वे कितने भव धारण करेंगे। कारण लेखक मानता है कि अब ऐसी ख्याति से उनकी जरा भी हानि या लाभ नहीं है । इसके साथ यह भी समझना चाहिए कि लेखक मोह-बुद्धिसे प्रेरित होकर कोई अतिशयोक्ति भी नहीं कर रहा है। कारण वह समझता है कि मोह-बुद्धि कर्मबंधकी कारण है । लेखकने उनके स्वरूपका जो अनुभव किया है उसे वह इस लिए प्रकट करना चाहता है कि इस युगमें जिन्हें आत्माके अस्तित्वसे इन्कार है और जो उसे नित्य कुबूल नहीं करते वे स्वयं श्रीमद् राजचंद्रके विचारोंके विषयमें अभ्यास करनेके लिए आकर्षित हों। ऐसा करनेसे उन्हें विश्वास होगा कि ज्ञानियोंने जो आत्मा आदि पदार्थोंका अस्तित्त्व स्वीकार किया है वह बिलकुल सत्य है और उसी सत्यके उदाहरण श्रीमद् राजचंद्र हैं। इस उद्देशको छोड़ कर लेखकके मनमें और कोई उद्देश नहीं है कि जिससे वह श्रीमद् राजचंद्रके सम्बन्धमें कुछ कहे। श्रीमद् राजचंद्रने जो कहा है वह न तो अंध-श्रद्धासे कहा है और न सामान्य श्रद्धाके वश होकर कहा है, अथवा न यही बात है कि वे धार्मिक विचार-वातावरणमें पले-पुसे हैं इस कारण उनकी शक्ति ही स्तंभित हो गई थी। इस प्रकार उनके विषयमें पूरा पूरा ज्ञान हो जानेके बाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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