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श्रीमद् राजचन्द्र
यह सत्य है कि लोग वेष और वेष-सम्बन्धी विचारोंको देख कर ही वैस मान सकते हैं। और यह भी सत्य है कि निग्रंथ-भाव धारण करनेके लिए उत्सुक चित्त व्यवहारमें रह कर यथार्थ प्रवृत्ति नहीं कर सकता। यही कारण है कि इन दो स्थितियोंकी एक स्थितिके रूपमें प्रवृत्ति नहीं की जा सकती। पहली स्थितिमें रहने पर निग्रंथ-भावनासे उदासीन रहना पड़ता है और तब ही ठीक ठीक व्यवहार साधन किया जा सकता है।
और निग्रंथ-भावना धारण की जाय तो फिर व्यवहार चाहे जैसा चले उससे उपेक्षा ही करनी पड़ेगी। कारण व्यवहारसे उपेक्षा किये बिना निग्रंथ-भावना नष्ट हुए बिना नहीं रह सकती । अथवा उसे अत्यन्त ही कम कर देना पड़ेगा । उस व्यवहारके छोड़े बिना या कम किये बिना निपँथ-भावना यथार्थ नहीं रह सकती । और साथ ही जब तक व्यवहारका उदय है तब तक वह छोड़ा भी नहीं जा सकता । इस सब विभाव-योगके बिना मिटे ऐसा दूसरा कोई उपाय नहीं है जिससे हमारा चित्त सन्तोष लाभ कर सके । वह विभाव-योग दो प्रकारका है। एक तो उदय-रूप है और दूसरा उस विभाव योगमें आत्म-बुद्धि मानने-रूप है। इनमें आत्म-भावरूप विभाव-योगकी तो उपेक्षा करना ही हितकारी है। और नित्य यह बात विचारमें भी आती रहती है । उस विभाव-योगमें रह कर आत्म-भावको बहुत क्षीण कर डाला है और वर्तमानमें भी वही परिणति हो रही है। इस विभाव-योगको जब तक सर्वथा नष्ट न कर दिया जायगा तब तक चित्तको किसी भी प्रकार शान्ति नहीं मिल सकेगी। और इस समय तो उसीके कारण बहुत ही कष्ट भोगना पड़ता है। क्योंकि उदय तो विभाव-योग-क्रियाका है और इच्छा आत्म
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