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परिचय ।
वाद-रूप है; और दूसरी ओर श्रीमद् राजचंद्रकी अभ्यन्तर दशाके सम्बन्धमें विचार प्रगट करनेका साहस करना भी शक्तिके बाहरका काम है। जैन शास्त्रोंमें कहा गया है कि " 'सम्यक्त्व' प्राप्त हुए बाद यदि वह छूट न जाय तो अधिकसे अधिक पन्द्रह भवोंमें जीव नियमसे मोक्ष चला जाता है।" श्रीमद् राजचंद्रने भी आत्मोपयोगी एक पद्य लिखते हुए इस विषय पर प्रकाश डाला है कि उन्हें आगे कितने भव धारण करना पड़ेगे। वह पद्य यह है
"अवश्य कर्मनो भोग छे, भोगववो अवशेष रे;
तेथी देह एकज धारीने, जाशुं स्वरूप स्वदेश रे।" यह पद्य उन्होंने न किसीको लिखा था और न उनके किसी ग्रन्थमें ही आया है। किन्तु अपने जीवनकी आदर्श-रूप तीन घटनाओंको जो उन्होंने नोट कर रक्खा है उसी परसे लिया गया है। उन नोटोंका कुछ अंश यहाँ पर उद्धृत करना आवश्यक जान पड़ता है, जिससे इस बातका ज्ञान हो सकेगा कि इन नोटोंमें उन्होंने समय समय पर अपने सब गुण-दोषों अथवा अच्छा-बुरी हालतके चित्रित करनेका यत्न किया है। वह अंश यह है__"तीर्थकर प्रभुने जो यह कहा है कि सर्वसंग-परिग्रह महा आस्रवका कारण है यह सत्य है,। मुझे भी मिश्र गुणस्थानके जैसी स्थिति उचित नहीं जान पड़ती। जो बात मनमें न हो उसे करना और जो मनमें हो उसके प्रति उदास रहना, यह व्यवहार कैसे हो सकता है ? इस वैश्यदृषि और निग्रंथ-रूपमें रहते हुए कोटि कोटि विचार हुआ करते हैं।
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