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श्रीमद् राजचन्द्रहै। उनमें पहलेके तीन गुणस्थानोंमें जीवको तत्त्व-श्रद्धान-रूप तथा आत्मश्रद्धान-रूप सम्यग्दर्शन नहीं होता । जब जीव चौथे गुणस्थानको प्राप्त करता है तब जगत्के कारण-भूत पदार्थोंकी उसे यथार्थ प्रतीति-सम्यग्दर्शन होता है। जैन शास्त्रोंमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों गुणोंकी सम्पूर्णपने एकता लाभ करने पर बहुत जोर दिया गया है, और यही एकता ही मोक्षमार्ग है । इनमें पहले सम्यग्द. र्शनके पाँच भेद हैं। उनमें उपशम-सम्यक्त्व, क्षयोपशम-सम्यक्त्व और क्षायिक-सम्यक्त्व मुख्य हैं। इस समय जैनधर्मकी ऐसी मान्यता है कि इस कालमें क्षायिक-सम्यक्त्व नहीं होता । इस कथनको यदि उत्सर्ग कथन मान लिया जाय तो श्रीमद् राजचंद्रके विचारों परसे यह कहा जा सकता है कि उन्हें क्षायिक-सम्यक्त्व' हो गया था। उन्होंने अपने आत्माके सम्बन्धमें लिखते हुए एक पद्यमें लिखा था कि "ओगणिससे
ड़तालीशे समकित शुद्ध प्रकाश्यु रे ।" इस पद्यमें जो 'शुद्ध समकित' शब्द' है उसका अर्थ 'क्षायिक-सम्यक्त्व' हो सकता है। यद्यपि राजचंद्रने स्पष्ट शब्दोंमें 'शुद्ध सम्यक्त्व' का अर्थ 'क्षायिक-सम्यक्त्व' कहीं नहीं लिखा है। परन्तु उनके विचारोंको देखनेसे ऐसा अर्थ करना कोई अनुचित नहीं जान पड़ता । जो यह कहा जाता है कि इस कालमें क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होता इस कथनको उत्सर्ग-रूपमें स्वीकार कर लिया जाय तो फिर अपवाद-रूपसे श्रीमद् राजचंद्र क्षायिक-सम्यक्त्व धारण करनेवाले जीवोंकी श्रेणी में गिने जा सकते हैं । इस विषयमें गहरी खोज करनेकी आवश्यकता नहीं जान पड़ती। कारण पहले तो इसी बातका निश्चय करना कठिन है कि जैन शास्त्रोंकी वह मान्यता उत्सर्ग-रूप है या अप
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