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परिचय ।
हुई है और इसी कारण अनुमान पर अत्यन्त जोर देना उचित न समझ श्रीजिन भगवानने जो आत्म-स्वरूप कहा है वह विशेषतया अविरोधी है, ऐसा कहा है।" इस अंश तथा इसके बादके अंश पर यदि मनन-पूर्वक विचार किया जाय तो जान पड़ेगा कि सारे पत्रका सार यह है कि श्रीमद् राजचंद्रको महावीर आदिके द्वारा कहे हुए आत्म-स्वरूपका प्रत्यक्ष अनुभव एक खास सीमा तक था; किन्तु महावीर आदिने जो कैवल्य अवस्था तक स्वरूप प्राप्त किया था वह उन्हें अनुभवके द्वारा प्रत्यक्ष नहीं हुआ था और इसी केवलज्ञानकी प्राप्ति न होनेसे ही, अपने आपको स्पष्ट विश्वास होने पर भी, उन्होंने यह नहीं कहा कि जिन भगवानके द्वारा कहा गया आत्म-स्वरूप सर्वथा अविरोधी 'ही' है। इस वाक्यमें 'ही' का प्रयोग कर उस पर जोर नहीं दिया। जब कि पहले "वेदान्तादि दर्शन जैसा कहते है वैसा 'ही' आत्म-स्वरूप नहीं है, इस वाक्यमें 'ही' का प्रयोग कर वाक्य पर जोर दिया है। यह कथन इस बातको सिद्ध करता है कि श्रीमद् राजचंद्रको यह दृढ़ अनुभव हो गया था कि वेदान्तादि दर्शन जैसा आत्म-स्वरूप बतलाते हैं वह वैसा नहीं है। और जैनधर्म जिस प्रकार आत्म-स्वरूप बतलाता है उसका एक खास सीमा तक प्रत्यक्ष अनुभव उन्हें था । इस अनुभवका यह मतलब समझना चाहिए कि पूर्ण प्रत्यक्ष अनुभवसे-कैवल्य समयमें होनेवाले अनुभवसे-यह कुछ अंशमें न्यून था। पाठकोंसे यह खास आग्रह है कि वे श्रीमद् राजचंद्रके इस लेख तथा अन्य सब लेखोंको पढ़ कर, मनन कर उनके विषयमें अपने विचार स्थिर करें।
जैनधर्ममें मोक्ष जानेके लिए चौदह गुणस्थानोंका क्रम बतलाया गया
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