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परिचय ।
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स्वभावमें स्थिति करनेके लिए उत्सुक है । यह जान पड़ता है कि यदि विभाव- योगका उदय बहुत काल तक रहा तो आत्म-भाव अधिक चंचल होंगे, कारण उदय भावकी ओर जो प्रवृत्ति हो रही है वह आत्म-भावोंके अन्वेषण के लिए समय प्राप्त नहीं होने देती । और उसीसे कितने ही 1 अंशमें आत्म-भाव जागृत नहीं हो पाते । जो आत्म-भाव उत्पन्न हुआ है। उसकी ओर यदि विशेष लक्ष्य दिया जाय तो थोड़े ही समय में वह बढ़ सकता है, विशेष जाग्रत हो सकता है, और थोड़े ही समय में कल्याणकारक उच्च आत्म- दशा प्रगट हो सकती है । और यदि उदयकी जितनी स्थिति है उतने ही समय तक उदय-काल रहने दिया जाय तो आत्माके लिए शिथिल होनेका मौका आ जायगा । कारण अब तक उदय-कालकी चाहे जैसी ही स्थिति क्यों न रही हो; परन्तु वह चिर समयसे चले आये आत्म-भावको नष्ट नहीं कर सका है; किन्तु हाँ, कुछ कुछ उसमें अजाग्रत -भाव उसने अवश्य पैदा कर दिया है । इतने पर भी यदि उदय काल ही पर ध्यान रक्खा जायगा तो उसका परिणाम यह होगा कि आत्मा में शिथिलता आ जायगी । तब क्या मौन धारण कर लेना चाहिए ? वह भी नहीं बन सकता । कारण व्यवहारका जो उदय हो रहा उससे मौनावस्था लोगों के लिए कषायका कारण बन जायगी, और फिर व्यवहारकी प्रवृत्ति भी न होगी । तब क्या उस व्यवहार हीको छोड़ देना ? विचार करने पर ऐसा करना भी बहुत कठिन जान पड़ता है । क्योंकि चित्तमें ऐसी भी इच्छा बनी रहती है कि व्यवहारके उदयको भी कुछ-कुछ भोगते रहना चाहिए। इतना सब कुछ होने पर भी यह इच्छा है कि थोड़े समय में इस व्यवहारको कम ही कर देना अच्छा है । फिर वह
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