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परिचय ।
- अर्थात् क्षण भरके लिए भी की गई सत्पुरुषोंकी संगति संसार-रूप समुद्रके तैरनेके लिए नौकाके सदृश है। __ "यह वाक्य महात्मा शंकराचार्यजीका है, और वास्तवमें बहुत ही यथार्थ है । हृदयमें निरन्तर यही भावना रहती है कि स्वयं परमार्थ-रूप बम कर अन्यजनोंको भी परमार्थ-साधनमें सहायता दूं और यही कर्त्तव्य भी है, परन्तु अभी ऐसा योग मिलना कठिन है।" ___ यह ठीक है कि श्रीमद् राजचंद्रको विचार तथा अनुभवमें श्रीजिनप्रणीत वस्तु-स्वरूप यथार्थ जान पड़ता था; परन्तु यदि उनके विचारोंका परिशीलन किया जाय तो यह बात स्वीकार कर लेनी पड़ेगी कि उन्होंने अन्य दर्शनोंमें जहाँ उत्तमता देखी है उसके प्रति अपना अत्यन्त प्रेम-भाव बतलाया है। पुराणोंमें जो भक्तिका अद्भुत माहात्म्य बतलाया गया है उस पर उनका अत्यन्त ही प्रेम था। नीचेके एक पत्र परसे इस बोतकी प्रतीति हो सकेगी । यही नही; किन्तु फिर वैदिक मतानुयायी जन यह शंका भी न उठा सकेंगे कि श्रीमद् राजचंद्रको जैन सिद्धान्तका अन्तिम सहारा था अर्थात् उन्होंने वैदिक सम्प्रदायोंके सिद्धान्तका यथावस्थित रूपसे अवलोकन न किया था। यह पत्र उन्हें विश्वास करायेगा कि जिसने बड़े प्रेमके साथ वैदिक विचारोंका अभ्यास किया है वही ऐसे विचारोंको लिख सकता है। उस पत्रका अंश यह है
"आज प्रातःकालसे निरंजन प्रभुका कोई अद्भुत अनुग्रह प्रकाशमान हुआ है। आज बहुत दिन हुए वांछित उत्कृष्ट भक्ति कोई अनुपम रूपमें उदय हुई है। श्रीमद् भागवतमें जो कथा है कि गोपियाँ भगवान् वासुदेव-कृष्णचन्द्र-को महीकी मटकीमें रख कर बेचनेके लिए निकली थीं,
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