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श्रीमद राजचन्द्र
स्पष्ट करनेके लिए उनके एक पत्रका कुछ अंश उद्धृत किया जाता है। यह पत्र उन्होंने सं० १९४७ अगहन विदीमें लिखा था । उसमें लिखा था
"कुणवी और कोली जैसी जातिमें भी थोड़े वर्षों में ऐसे बहुतसे पुरुष हो गये हैं जिन्होंने आत्म-मार्ग प्राप्त किया है । ऐसे महात्मा
ओंका साधारण जन-समाजको परिचय न होनेके कारण उनके द्वारा कोई विरला ही सिद्धि लाभ कर सका है। यह कैसा अद्भुत ईश्वरीय विधान है जो महात्मा पुरुषोंके प्रति भी लोगोंको मोह उत्पन्न न हुआ! ये सब ज्ञानकी अन्तिम सीमा तक पहुँच न गये थे; परन्तु उस सीमाका प्राप्त करना इनके लिए बहुत कुछ पास ही था । ऐसे पुरुषोंके प्रति हृदयमें बड़ा उल्लास होता है और यह उत्सुकता बनी रहती है कि मानों निरंतर उनके चरण-कमलोंकी भक्ति ही करते रहें। और यही उनकी भक्ति हमें अपना दास बनाती है।" काठियावाड़में एक कहावत प्रसिद्ध है कि 'भोजो भगत, निराँत कोली' अर्थात् भोजा और निराँतके जैसे कोली आदि जातियोंमें भी बड़े बड़े महात्मा हो गये हैं।
इसी प्रकार अपने एक पत्रमें उन्होंने श्रीमदू शंकराचार्यका बड़े गौरवके साथ स्मरण किया है। उन्होंने उनके एक वाक्यका उल्लेख कर लिखा है
"क्षणमपि सज्जनसंगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका।
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