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परिचय ।
.. कोई यह कहे कि जैनधर्मके प्रति श्रीमद् राजचंद्रकी राग-बुद्धि होनी चाहिए; क्योंकि उसी राग-बुद्धिके कारण ही अन्य दर्शनोंका माना हुआ आत्म-स्वरूप स्वीकार न कर जैनधर्ममें कहे हुए आत्म-स्वरूपको उन्होंने खीकार किया। ऐसे लोग अपने मनका समाधान उनके सं० १९४४ कँवार विदी २ के पत्रसे कर सकते हैं। उस पत्र में उन्होंने लिखा था“पार्श्वनाथ आदि योगीश्वरोंकी अवस्थाका स्मरण रखना और सदा यही अभिलाषा रखना। यह अल्पज्ञ आत्मा उस पदका इच्छुक है और उन महापुरुषोंके चरण-कमलोंमें तल्लीन रहनेवाला एक गरीब शिष्य है। जगत्के सब दर्शनों-मतोंके-भेद-भाव-श्रद्धाको भूल जाना । मात्र ( पार्श्वनाथ आदि ) सत्पुरुषोंके अद्भुत योगसे प्रकट हुए चरित्रमें ही उपयोगको प्रेरित करना। और यह बात भूलोगे नहीं कि राग-द्वेष छोड़ना ही मेरा धर्म है। परम शान्ति-पदकी इच्छा करना ही हम सबका स्वीकृत धर्म है। मैं किसी गच्छमें नहीं हूँ; किन्तु आत्मामें स्थित हूँ।
कोई यह समझे कि भले ही श्रीमद् राजचंद्रका जैनधर्मके प्रति ममत्व या राग-बुद्धि न हो; परन्तु इतना अवश्य है कि पार्श्वनाथ आदिके प्रति उनका प्रशस्त अनुराग है। यदि उनका अन्य दर्शनोंके महास्माओंके प्रति भी अनुराग होता तो जैसा उन्हें पार्श्वनाथ आदिके द्वारा प्रणीत आत्म-स्वरूप यथार्थ जान पड़ा उसी प्रकार अन्य दर्शन-प्रणीत आत्म-खरूपमें भी कोई न कोई अच्छा जान पड़ता । ऐसे विचारवाले लोग जब जान सकेंगे कि श्रीमद् राजचंद्रका अनुराग न उन दर्शनोंके प्रणेताओं पर ही था; किन्तु उन दर्शनोंके भक्तों पर भी उनका अत्यन्त अनुराग था तब बहुत संभव है कि वे अपने विचारोंको बदल देंगे। इस विषयको
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