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श्रीमद् राजचन्द्र
जैनधर्मके स्थानांग-सूत्र में धर्म-सम्बन्धी जो जो मत अथवा विचार आते हैं उनका मुख्यतासे आठ वादोंमें समावेश किया गया है। इन आठ वादोंमें जैन तथा सांख्य आदि सभी धर्म-सम्बन्धी विचार आ जाते हैं। एक बार किसी जिज्ञासुने श्रीमद् राजचंद्रसे कुछ प्रश्न किये कि (१) 'स्थानांग में जो आठ वाद कह गये हैं उनमें आप तथा हम किस वादमें शामिल हो सकते हैं ?; (२) इन आठ वादोंसे भिन्न कोई अन्य मार्ग स्वीकार करने योग्य हो तो उसके जाननेकी बड़ी इच्छा है। अथवा इन आठों वादोंके मार्गोको मिला कर कोई एक मार्ग स्थिर कर लिया जाय तो क्या हानि है ?; अथवा इन्हें कुछ न्यूनाधिक रूपमें मिला कर कोई मार्ग स्थिर कर उसे ग्रहण किया जाय तो वह मार्ग किस रूप है? इन प्रश्नोंका श्रीमद् राजचंद्रने जो उत्तर दिया है उस परसे जान पड़ता है कि उनमें धर्म-वादका जरा भी मोह न था। उनका लक्ष्य निरंतर आत्म-प्राप्तिकी ओर ही लगा रहता था। इन प्रश्नोंके उत्तरमें उन्होंने लिखा था कि “ऐसा जो लिखा है उसमें जानने योग्य यह है कि इन आठों वादोंमें तथा इनके सिवाय अन्य दर्शनों और सम्प्रदायोंमें आत्म-मार्ग कुछ मिला हुआ रहता है या बहुधा करके भिन्न ही रहता है। ये सब वाद, दर्शन या सम्प्रदाय किसी प्रकार मोक्ष-प्राप्तिके कारण हो सकते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञान-रहित जीवोंके लिए ये उलटे बंधके कारण हो जाते हैं । आत्म-मार्गके प्राप्त करनेकी जिसे इच्छा उत्पन्न हुई है उसे इन सबका 'साधारण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, इन्हें पढ़ना और विचारना चाहिए; बाकी मध्यस्थ रहना चाहिए । 'साधारण ज्ञान'का यहाँ पर यह अर्थ करना चाहिए कि जिन सामान्य विषयोंमें अधिक मतभेद न हो वह ज्ञान ।"
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