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परिचय ।
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कि श्रीमद् राजचंद्रका आत्मा किसी भी कारणसे जैन तथा अन्य दर्शनके विषयमें अन्यथा या कोई विशेष-रूपसे अपने विचार स्थिर करने में अत्यन्त डरा करता था। ___ यह कोई नहीं कह सकता कि उन्हें धर्मका मोह था, इस कारण उनको मन जैनधर्मके सिद्धांतोंको सत्य समझता था। उनके विचारोंका अभ्यास करनेसे यह बात सहज जानी जा सकती है कि उनके एक रोममें भी . किसी धर्मके प्रति जरा भी ममत्व न था। उन्होंने पग पग पर यही चर्चा की है कि धर्मका मोह कभी न होना चाहिए। यहाँ पर दो पद्य उद्धृत किये जाते हैं। श्रीमद् राजचंद्रके शब्दोंमें उनका अर्थ होता है-'जगत्में जो भिन्न भिन्न मत और दर्शन देखने में आते हैं यह केवल दृष्टि-भेद है।" इन पद्यों परसे यह कहनेका कोई साहस नहीं कर सकता कि उन्हें धर्म-सम्बन्धी मोह था । वे पद्य ये हैं
भिन्न भिन्न मत देखिए, मोह-दृष्टिनो अह । एकतत्त्वना मूल्यमां, व्यप्या मानो तेह ॥ तेह तत्त्वरुप वृक्षनो, आत्मधर्म जे मूल ।
स्वभावनी सिद्धी करे, धर्म तेज अनुकूल ।। अर्थात् भिन्न भिन्न जो मत देखे जाते हैं वह सब दृष्टिका भेद है। ये सब ही मत एक तत्त्वके मूलमें व्याप्त हो रहे हैं। उस तत्त्व-रूप वृक्षका मूल है आत्मधर्म, जो कि स्वभावकी सिद्धि करता है और वही धर्म अनुकूल है-धारण करने योग्य है। उनके कहनेका मतलब यह जान पड़ता हैं कि आत्माका वास्तविक स्वभाव जिसके द्वारा सिद्ध हो सके वही धर्म अपना स्वकीय धर्म है या अनुकूल धर्म है।
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