________________
५२
श्रीमद् राजचन्द्र
अविरोधी होने योग्य है। आत्मामें यह दृढ़ विश्वास है कि किसी पुरुषमें पूर्ण आत्म-स्वरूप-प्रकट होना ही चाहिए । और वह कैसे पुरुषमें प्रकट होना चाहिए, इस बातका विचार करने पर यह स्पष्ट जान पड़ता है कि इसके योग्य श्रीजिन भगवान ही हैं। सारे सृष्टि-मण्डलमें किसी पुरुषमें सम्पूर्ण-रूपसे आत्म-स्वरूप प्रकट होने योग्य है तो वह वीर प्रभुमें सबसे पहले प्रकट होना चाहिए । अथवा ऐसी अवस्थाको प्राप्त किये हुए पुरुषोंमें सबसे पहले पूर्ण आत्म-स्वरूप "
वेदान्त और सांख्य आदि दर्शनोंका राजचंद्रने कितनी निष्पक्षपात बुद्धिसे अवलोकन किया था तथा जैनदर्शनके प्रति जरा भी राग-बुद्धि न हो जानेके लिए उन्हें कितनी सावधानी रखना पड़ती थी इस बातको वे ही लोग जान सकते हैं जो 'विचार-पृथक्करण-शास्त्र के जानकार हैं। एक ओर इस बातका विचार कीजिए कि वेदान्त, सांख्य आदि दर्शनोंका श्रीमद् राजचंद्रने कितना सूक्ष्म परिशीलन किया था, जिसके लिए कि उन्होंने जगह जगह आत्म-चर्चाहीका विचार किया है और इन दर्शनोंको अविरुद्ध रूपमें देखनेके लिए उनका कितना उच्च लक्ष्य था। उसके साथ दूसरी यह बात ध्यानमें रखिए कि उन्होंने अपना अनुभव इस रूपमें बतलाया है कि जिन भगवानके द्वारा कहा गया आत्म-स्वरूप सम्पूर्णपने अविरोधी होना चाहिए; परन्तु वे यह नहीं कहते कि वह सम्पूर्ण-रूपसे अविरोधी है । इसका कारण वे यह बतलाते हैं कि "अभी हममें पूर्ण आत्म-दशा प्रकट नहीं हुई है। अर्थात् केवलज्ञान होने पर श्रीवर्धमान खामी या श्रीऋषभदेव आदि परम पुरुषोंको आत्म-स्वरूपका जैसा अनुभव हुआ था वैसा अनुभव हमें नहीं हुआ है।" कहनेका मतलब यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org