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परिचय ।
जैनियोंके प्रति मेरी बड़ी घृणा हो गई थी। मेरा विश्वास हो गया था कि कोई चीज बिना बनाये नहीं बन सकती । और इसी कारण मैं समझता था कि जैनी बड़े मूर्ख हैं-वे कुछ नहीं जानते ।" इस प्रकार बालकपनके उनके संस्कारोंको देख कर कोई यह नहीं कह सकता कि इन संस्कारों के कारण जैनधर्मके प्रति उनकी स्थिर श्रद्धा थी। उनके विचारों के संग्रहके पढ़नेसे यह स्पष्ट जाना जा सकता है कि श्रीमद् राजचंद्रने सब दर्शनोंका कितना सूक्ष्म अभ्यास किया था। इसी प्रकार उन्हें वेदान्त, सांख्य आदि दर्शनोंके सिद्धान्तका भी खूब प्रौढ़ ज्ञान था। उनकी खास डायरीके पढ़नेसे जान पड़ता है कि उन्हें एक प्रौढ़-से-प्रौढ़ वेदान्त आदि दर्शनोंके ज्ञाताके जितना ज्ञान था। हमारी जब कोई बहु-मूल्य वस्तु कहीं गिर पड़ती है तब हम उसे ढूँढ़नेके लिए सब रास्तोंको एक एक करके टटोल डालते हैं। इसी प्रकार श्रीमद् राजचंद्रने भी विश्व-व्यवस्थाके सत्य-स्वरूप-रूपी बहु-मूल्य वस्तुकी खोजके लिए जैन, वैदान्त, सांख्य आदि दर्शन-रूपी मार्गीको खूब ही छान डाला था। उनकी डायरीसे जो अंश नीचे उद्धृत किया जाता है उसके पढ़नेसे जान पड़ेगा कि श्रीमद् राजचंद्रने जो जैनदर्शन स्वीकार किया था वह पहले सब दर्शनों के खूब अभ्यास-मननके बाद ही स्वीकार किया था। वह अंश यह है:
"प्रत्यक्ष नाना प्रकारके दुःखों तथा दुःखी प्राणियोंको देखा; जगत्की विचित्र रचनाके कारणों पर विचार किया तथा यह सोचा कि दुःखोंका मूल कारण क्या है और उसकी निवृत्ति कैसे हो सकेगी? इसी प्रकार जगत्का अन्तरंग स्वरूप जाननेकी इच्छा करनेवाले मुमुक्षु तथा उपर्युक्त विचारों के सम्बन्धमें पूर्वाचार्योंने जो समाधान किया है अथवा जैसा माना है उसकी
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