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________________ ४८ श्रीमद् राजचन्द्र जैनसिद्धान्तकी स्वीकारता । श्रीमद् राजचंद्रकी एक 'जैन फिलोसफर के रूपमें भी प्रसिद्धि है। इस परसे अन्य दर्शनोंके विद्वान् कह सकते हैं कि श्रीमद् राजचंद्र जैन हैं, तथा इसी प्रकार वे जैनधर्म-सम्बन्धी विचार-वातावरणमें पले-पुसे हैं, इस कारण उनके विचार जैन-सिद्धान्तके प्रति स्थिर हैं। परन्तु यदि उन्होंने अन्य दर्शनोंका भी अवलोकन किया होता तो उन्हें स्वयं ही अपने विचार बदल देना पड़ते । उनकी इस शंकाका समाधान कर देने पर निश्चित है कि उन्हें अपने विचार छोड़ देना पड़ेंगे। यह कह देना आवश्यक है कि बालकपनमें श्रीमद् राजचंद्रके संस्कारोंके लिए जैनधर्मका कोई निमित्त न था। उनके पितामहका कोई अट्ठानवें वर्षकी अवस्थामें स्वर्गवास हुआ। वे श्रीकृष्णके परम भक्त थे। और इसी कारण बालपनसे ही श्रीमद् राजचंद्रके संस्कार पौराणिक कथाओंको सुन सुन कर श्रीकृष्णकी भक्तिकी ओर बहुत झुक गये थे। बालपनमें उनके धर्म-संस्कार कैसे थे, इस विषयमें उन्होंने स्वयं लिखा है कि "मेरे पितामह श्रीकृष्णके भक्त थे। उनके पास मैंने श्रीकृष्णकी भक्तिके भजन सुने थे । इसी प्रकार प्रत्येक अवतारकी चमत्कार-पूर्ण कथा सुनी थी। उससे भक्तिके साथ साथ मेरे हृदयमें अवतारों के प्रति श्रद्धा हो गई थी। मैंने बालपनमें कंठी बँधाई थी । मैं नित्य ही श्रीकृष्णके दर्शन करनेको जाता था । समय समय पर उनकी कथा सुना करता था। उन्हें मैं परमात्मा मानता था । और इस कारण उनके निवास-स्थानके देखनेकी बड़ी उत्कंठा थी।........गुजरातीकी पाठ्य पुस्तकमें कितनी जगह लिखा है कि ईश्वर जगत्का कर्ता है। उसे पढ़ कर मेरा भी विश्वास ऐसा ही दृढ़ हो गया था। और इस कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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