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परिचय ।
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अनुभव ऐसा था कि जो शास्त्रोंमें नहीं मिल सकता और जिसे जड़वादी कल्पनामें भी नहीं ला सकता । वह अनुभव फिर धीरे धीरे बढ़ता ही गया, और अन्तमें वह यहाँ तक पहुँच गया कि अब 'तूही तूही' का ध्यान रहता है।"
इस परसे जड़वादी लोग विश्वास कर सकेंगे कि श्रीमद् राजचंद्रकी जो आत्मधर्म पर श्रद्धा जमी थी वह कुल-परंपरा अथवा जन्म-संस्कारके कारण होनेवाली धर्म-वासनाके अधीन न थी। किन्तु अपनी स्वतंत्र विचार-शक्तिके द्वारा जड़वादके सम्बन्धमें पूर्ण विचार किये बाद ही उन्होंने जड़वादका मूल्य एक शून्यके जैसा समझा था । यहाँ पर कोई पाश्चात्य विज्ञानवादी या साइन्टिफिक यह कहे कि श्रीमद् राजचंद्रने जो जड़वादके सम्बन्धमें विचार किये थे वे पूर्वकी पद्धत्तिको लिये हुए थे। परन्तु यदि उन्होंने पाश्चात्य पद्धतिसे जड़वादका अभ्यास किया होता तो उन्हें खुद विश्वास हो जाता कि आत्मवाद भ्रम-पूर्ण है । इसके उत्तरमें यह कहा जा सकता है कि पाश्चात्य सायन्सका जो कहना है कि यह प्राणि-रचना परमाणुओंसे हुई है उसी परमाणु-शास्त्रका श्रीमद् राजचंद्रने इतना गंभीर विचार किया था कि जो पाश्चात्य परमाणु-शास्त्र-वेत्ताओंके ध्यानमें भी नहीं आ सकता। कारण जिस धर्मका श्रीमद् राजचंद्रने आश्रय लिया है उस धर्ममें परमाणु-शास्त्रका पाश्चात्य सायन्ससे सहस्र गुणा विचार किया है । 'आत्मा' की रचना परमाणुओं द्वारा कभी नहीं हो सकती । इस विषयमें श्रीमद् राजचंद्रने जो जो विचार किये हैं उन्हें उनकी लिखी 'आत्मसिद्धि' तथा अन्य पुस्तकोंके पढ़नेसे जड़वादी लोग जान सकेंगे।
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