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________________ ४६ श्रीमद् राजचन्द्र राजचंद्रने उन्हीं विचारोंका पहले खूब अनुभव कर बादमें आत्म-वादको स्वीकार किया है। श्रीमद् राजचंद्रके विचारोंके संग्रहमें उनकी जो डायरी प्रकाशित की गई है, उसके पढ़नेसे जान पड़ेगा कि उन्होंने सृष्टिके प्रत्येक गूढ़ रहस्य पर खूब विचार करनेके बाद ही आत्मवाद स्वीकार किया है। श्रीमद् राजचंद्रने सं० १९४६ कार्तिक सुदी १५ को जब कि उनकी उमर पूरे बावीस वर्षकी हो चुकी थी-अपनी जीवनी लिखना शुरू की थी। उसमें उन्होंने लिखा है कि "बावीस वर्षकी उमरमें मैंने आत्मा, मन, वचन, तन, और धनके सम्बन्धमें अनेक रंग देखे हैं; और नाना प्रकारकी सृष्टि-सम्बन्धी रचनायें, नाना प्रकारकी संसारसम्बन्धी मजा-मौज आदि अनेक अनन्त दुःखकी कारण बातोंका नाना तरह अनुभव किया है । तथा बड़े बड़े तत्त्वज्ञानी और नास्तिकोंने जो जो विचार किये हैं उसी प्रकार के विचार मैंने अपनी छोटी उमरमें किये हैं।" एक जगह और लिखा है कि “बालकपनमें कम समझ होने पर भी न जाने कहाँसे मुझमें बड़ी बड़ी कल्पनायें उठा करती थीं। उन कल्पनाओंका एक बार ऐसा स्वरूप दिखाई दिया कि पुनर्जन्म नहीं है, पाप नहीं है, पुण्य नहीं है । सुख-पूर्वक रह कर संसारका उपभोग करना ही जीवनकी सार्थकता है। इसके बाद ही अन्य किसी झगड़ेमें न पड़ कर धर्म-सम्बन्धी सब वासनाओंको निकाल दूर करदी। किसी भी धर्मके प्रति न्यूनाधिक भाव या श्रद्धा न रही। इसी हालतमें थोड़ा समय बीत गया । इसके बाद कुछ औरका और ही बनाव बना । जिसके होनेकी मैंने कल्पना भी न की थी और मेरे हृदयमें जिसके लिए जरा भी प्रयत्न न था; तो भी अचानक एक विचित्र ही फेर-फार हो गया । कुछ और ही अनुभव हुआ । वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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