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श्रीमद् राजचन्द्र
यथाशक्ति आलोचना की; उस आलोचनाके समय विविध प्रकारके मत-मतान्तर तथा मन्तव्योंके सम्बन्धमें यथाशक्ति विचार किया और नाना दर्शनोंके स्वरूपका मंथन किया। इस बार बारके मंथनसे जो जैनधर्मके मंथनकी योग्यता प्राप्त हुई उससे उसका खूब ही मंथन हुआ । परिणाममें जैनदर्शनकी सिद्धि में जो पूर्वापर विरोध जान पड़ा उसका उल्लेख नीचे किया जाता है।" __ इस परसे जान पड़ता है कि श्रीमद् राजचंद्रने जो जैनधर्म स्वीकार किया था उसके पहले जैन तथा अन्य दर्शनों या सम्प्रदायोंके स्वरूपकी उनने आलोचना करली थी; और उन्हें जो जो बातें जैनधर्ममें विरुद्ध जान पड़ी थीं उनका उन्होंने उचित समाधान कर लिया था । अन्य दर्शनोंके विद्वान् इस परसे जान सकेंगे कि जैनधर्म पर जो श्रीमद् राजचंद्रकी श्रद्धा हुई थी वह कुल-परम्पराके कारण न हुई थी; तथा यह बात भी न थी कि उन्होंने अन्य दर्शनोंके अभ्यास-मनन किये बिना ही जैनधर्म पर श्रद्धा करली थी । इसी बातकी पुष्टि के लिए उनका एक खण्डित पत्र यहाँ उद्धृत किया जाता है । उससे जान पड़ेगा कि श्रीमद् राजचंद्रकी दृष्टि सब दर्शनोंके प्रति एकसी थी तथा किसी दर्शनके प्रति उनकी स्वाभाविक राग-बुद्धि न थी । वह पत्र यह है
"मेरे चित्तमें बार बार यह बात उठा करती है तथा परिणाम भी इसी रूप स्थिर रहते हैं कि आत्म-कल्याणके मार्गका निर्णय श्रीवर्द्धमान या श्रीऋषभदेव आदिने जैसा किया है वैसा किसी सम्प्रदायमें नहीं किया गया है । वेदान्त आदि दर्शनोंका लक्ष्य भी आत्मज्ञान तथा मोक्षकी ओर देखा जाता है। परन्तु उनका पूर्ण और यथार्थ निर्णय उनमें दिखा
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