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श्रीमद् राजचन्द्र
लको मैं भजता रहता हूँ। वह काल धन्य है जिसमें ज्ञानी पुरुषोंके अपूर्व अपूर्व चरित्र हुए हैं और वह काल और भी अधिक धन्य है जिसमें ऐसे महापुरुषोंका जन्म हुआ है। उन कानोंको, उन सुननेवाले जनोंको और उन भक्त पुरुषोंको त्रिकाल वंदना है जिन्होंने उन महात्माओंके चरित्रोंको सुना है तथा उनकी भक्ति की है । उस आत्म-स्वरूपकी भक्ति, उसके चिन्तन, उसकी समझानेवाली ज्ञानी पुरुषोंकी वाणी, अथवा ज्ञानी पुरुष या उसके मार्गानुगामी ज्ञानीजनोंके सिद्धान्तकी अपूर्वता आदिको अति भक्तिके साथ प्रणाम है। मुझे अखंड आत्मधुनकी एकतार-प्रवाह-रूप उन बातोंके सेवनकी अब भी बड़ी आतुरता रहा करती है। और दूसरी ओर ऐसे क्षेत्र, ऐसे जन-प्रवाह, ऐसी झंझटें और ऐसी ही अन्य बातोंको देख कर विचार शिथिल पड़ जाते हैं । अस्तु; ईश्वरेच्छा !" __ श्रीमद् राजचंद्रके-सोलह वर्षसे पहलेसे लेकर बत्तीस वर्षकी अवस्थापर्यन्त जब कि उनका स्वर्गवास हुआ-सब पत्रों और विचारोंका संग्रह श्रीमद् राजचंद्र' नामक ग्रन्थमें किया गया है । उसके अभ्याससे यह बात जानी जा सकती है कि उनकी आत्म-दशा दिनों दिन बढ़ती जा रही थी । श्रीमद् राजचंद्रने सं० १९५२ कँवार विदी १२ को जो पत्र अपने पिताजीको लिखा था, उस परसे माता-पिताके प्रति उनकी भक्ति तथा आत्म-वृत्तिका कुछ पता चल सकेगा। वह पत्र यह है__"शिरच्छत्र पिताजी,
बम्बईसे इस ओर आनेका कारण सिर्फ निवृत्ति है। शारीरिक कष्टके कारण मैं इधर नहीं आया हूँ। आपकी कृपासे शरीर अच्छा रहता है। और वही कृपा आत्मामें विशेष निवृत्ति कर रही है। इस समय बम्बईमें
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