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________________ परिचय। ४३ “गत वर्ष अगहन सुदी ६ को जबसे मैं यहाँ आया, तबहीसे आज तक बहुतसी झंझटें भोगना पड़ी हैं । यदि जिनप्रभुकी दया न होती तो धड़ पर सिरका रहना भी कठिन हो जाता। ऐसे अनेक प्रसंग देखे हैं और दृढ़ निश्चय किया है कि आत्म-स्वरूपके जाननेवाले मनुष्यके साथ संसारकी कभी नहीं पट सकती । इस संसारकी रचना ही ऐसी है कि बड़े बड़े ज्ञानी पुरुष अपने निश्चय-उपयोगमें दृढ़ रहते हुए भी मंद परिणामी हो जाते हैं । यह ठीक हैं कि आत्म-स्वरूप सम्बन्धी ज्ञानका कभी नाश नहीं होता तब भी उसकी विशेष परिणति पर एक प्रकारकी आवरण-रूप उपाधिका सम्बन्ध हो जाता है। मैं उस उपाधिके कारण आज भी कष्ट पा रहा हूँ। और ऐसे ऐसे प्रसंगों पर हृदयमें प्रभुका नाम स्मरण कर बड़े कठिन परिश्रमके वाद अपने में स्थिर रह पाता हूँ। हाँ, सम्यक्त्वमें किसी प्रकारकी भाँति नहीं होती; परन्तु यह तो स्पष्ट है कि उसके विशेष विशेष परिणाम विकसित नहीं होते । ऐसी हालतमें बहुत बार घबरा कर त्याग-वृत्तिका पालन किया जाता था; परन्तु ज्ञानी पुरुषोंका तो मार्ग यह है कि वे उपार्जित कर्मोंको अदीनता-पूर्वक समभावोंसे, बिना घबराये हुए भोगें । और इस भावनाकी स्मृतिसे ही मनमें स्थिरता आती थी कि उक्त स्थिति हीका मुझे भी पालन करना आवश्यक है। मतलब यह कि इस प्रकारकी भावनाके बाद ही मनकी घबराहट मिटती थी।" "मेरी स्थिति ऐसी है कि सारा दिन यदि निवृत्तिके विचारोंमें व्यतीत न हो तो सुख ही नहीं हो सकता । आत्मा, आत्माके विचार, ज्ञानी पुरुषोंका मरण, उनके प्रभावकी कथायें, उनके प्रति भक्ति, उनके आत्म-चरित्रके प्रति मोह आदि बातें आज भी आकर्षित करती हैं, और उसी का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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