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श्रीमद् राजचन्द्र"विचार करने पर जान पड़ता है कि यह जो उपाधि उदयमें आ रही है वह सर्वथा कष्ट-रूप भी नहीं है। जिसके द्वारा पूर्वोपार्जित कर्म शान्त होते हैं उस उपाधिको तो उलटी आत्म-श्रद्धान उत्पन्न करनेवाली कहना चाहिए। मनमें सदा यह भावना रहा करती है कि थोड़े ही समयमें ये सब झंझटें दूर होकर बाह्याभ्यन्तर निम्रन्थता प्राप्त हो जाय तो बहुत ही अच्छा हो । परन्तु शीघ्र ही ऐसा योग मिलना असंभव है । और जब तक ऐसा योग न मिले तब तक मनकी चिन्ताओंका मिटना भी संभव नहीं।"
"दूसरे अन्य व्यापार इसी समय छोड़ दिये जायँ तो ऐसा हो सकता है; परन्तु दो-तीन ऐसी बातें उदयमें आ रही हैं कि वे भोगने पर ही छूट सकेगीं । वे ऐसी हैं कि कष्टसे भी उनकी स्थिति कम नहीं की जा सकती।
और यही कारण है कि एक मूर्ख मनुष्यकी भाँति ये सब व्यवहार करने पड़ते हैं। ऐसा प्रसंग मानों कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता कि किसी द्रव्यमें, किसी क्षेत्रमें और किसी भावमें स्थिति हो सके; और न इन सबमें प्रतिबद्ध होना ही अच्छा जान पड़ता है । प्रतिबद्ध होनेकी हमारी रुचि होती है निर्वृत्ति-क्षेत्र, निवृत्ति-काल, सत्संग और आत्म-विचारमें।
और इस लिए दिनरात यही इच्छा बनी रहती है कि किसी प्रकार ऐसा सुयोग थोड़े समयमें मिल जाय तो अच्छा हो ।”
दूसरा एक पत्र उन्होंने १९४९ श्रावण विदी पंचमीको लिखा था। उस परसे भी उनकी व्यापार-प्रवीणता तथा वृत्तिके सम्बन्धमें कई विशेष विशेष बातें ज्ञात हो सकती हैं। वह पत्र यह है
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