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परिचय |
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इस प्रकार श्रीमद् राजचंद्रने बड़े साहस के साथ कई वर्ष पर्यन्त व्यापार किया । उस समय उनकी व्यापार और व्यवहार कुशलता इतनी श्रेष्ठ थी कि वे कई विलायती व्यापारियोंके साथ काम काज करते थे । उनकी काम करनेकी पद्धतिको देख कर विलायती व्यापारी भारतीय लोगोंकी योग्यताकी बड़ी प्रशंसा करते थे । श्रीमद् राजचंद्रकी दूकानमें और भी भागीदार थे; परन्तु उसे उन्नति पर पहुँचानेके मूल कारण श्रीमद् राजचंद्र ही थे । उस दूकानके व्यापारकी मूल कुंजी उन्हीं के हाथमें थी ।
अब उनके आध्यात्मिक विचार सुनिए । सं० १९५० असाढ़ सुदी पूनम के एक पत्र में उन्होंने लिखा था
"इस समय यहाँ पर व्यापारका काम-काज बहुत रहता है, इस लिए थोड़े समय के लिए भी सहसा छुटकारा पाना बहुत कठिन है। मौका भी ऐसा है और साझीदारोंको मेरी यहाँ पर मौजूदगी बहुत ही आवश्यक जान पड़ती है । हाँ, मेरी इच्छा होती है कि मैं थोड़े समय के लिए काम - काजसे छुट्टी लूँ, परन्तु ऐसा तब कर सकता हूँ जब कि मेरे साझीदारोंके मनमें कोई प्रकारकी दुबधा न हो और मेरे यहाँ न रहने पर उनकी कोई विशेष हानि न हो।" इससे जान पड़ता है कि श्रीमद् राजचंद्र एक अच्छे कुशल व्यापारी थे और उनके पीछे व्यावहारिक बड़ा भारी जंजाल था । परन्तु आश्चर्य है कि ऐसी हालत में भी उनके अन्तरंगमें आत्म-चिन्तनके सिवाय कुछ न था । इस प्रकार उनका जीवन नाना उपाधियोंसे पूर्ण होने पर भी उनका लक्ष्य- बिन्दू कहाँ था, यह बात उनके उस पत्र से जान पड़ती है जिसे उन्होंने एक आत्मार्थी सज्जनको लिखा था । वह पत्र नीचे उद्धृत किया जाता
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