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श्रीमद् राजचन्द्र
“अनन्त कालसे अपने स्वरूपकी जो विस्मृति हो गई है उससे जीवके लिए पर भावका ग्रहण एक बहुत ही साधारण बात हो रही है । सत्संग-पूर्वक ज्ञानका अभ्यास करनेसे वह आत्म विस्मृति दूर की जा सकती है। अर्थात् पर भावोंमें उदासीनता आ सकती है । यह काल विषम है, इस कारण आत्म-स्वरूपकी तन्मयता लाभ करना कठिन है; परन्तु यदि अधिक समय के लिए सत्संग किया जाय तो निश्चित है कि उससे वह तन्मयता प्राप्त हो सकती है । जीवन बहुत थोड़ा है और झगड़े बहुत हैं, धन परिमित है और तृष्णा अनन्त है । ऐसी हालत में आत्म-स्वरूपका स्मरण असंभव है; परन्तु जहाँ झगड़े थोड़े हैं, जीवन और तृष्णा अत्यल्प है या बिलकुल नहीं है अथवा सब वहाँ आत्म-स्मृति पूर्णपने प्राप्त की जा सकती है। अमूल्य माया-मोहके प्रपंचमें बहा जा रहा है । उदय बड़ा बलवान् है ।"
प्रमाद - रहित है सिद्धियाँ प्राप्त हैं ज्ञान - जीवन
वे स्वयं व्यापारका काम-काज करते; परन्तु उस ओर उनकी भावना कैसी रहती थी, यह बात उनके दो-तीन पत्रों परसे अच्छी तरह ज्ञात हो सकती है। सं० १९४८ के एक पत्र में उन्होंने लिखा है - "इस समय व्यापार-सम्बन्धी काम परिमाणसे बहुत अधिक करना पड़ता है और उसमें मैं मन भी खूब लगाता हूँ; परंतु तब भी वह व्यापार में नहीं गड़ता । वह आत्म-स्वरूपमें ही लीन रहता है । इससे व्यावहारिक झंझटें भार-रूप जान पड़ती हैं । "
सं० १९४९ में श्रीमद् राजचंद्रने बम्बई से एक पत्र लिखा था । उससे भी उनके व्यापार तथा उनकी प्रवृत्तिका कुछ कुछ पता पड़ता पत्र यह है
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