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________________ श्रीमद् राजचन्द्र अन्तमें एक बड़े गहरे भयके गढ़ेमें उतरना पड़े । मेरी इस बात पर भाई नगीनदासको थोड़ा बहुत ध्यान अवश्य देना चाहिए। कारण एक दूसरेका परस्परका संबंध है । हजार-पाँचसौके नुकसानका विचार कर यह बात नहीं लिखी गई है; परन्तु इस अभिप्रायसे लिखी गई है कि हम सब इस बातको ध्यानमें रख कर काम करेंगे तो हमारा काम बहुत समय तक टिक सकेगा । यह पत्र भाई नगीनदासको पढ़नेके लिए देना और वे कहें तो आप ही पढ़ कर सुना देना, यह प्रार्थना है।" . "कल यहाँसे भाई नगीनदासके नामका एक लिफाफा डाला है । वह पहुँचा होगा । उस लिफाफेके भेजनेमें गलती हो गई थी। उसे पढ़ कर आपने वापिस लौटा दिया होता तो अच्छा होता । सीरीका भाव बहुत तेज है । इससे मुझे डर रहता है कि गत वर्षकी तरह इस वर्ष भी केवल वेगार करनेके जैसा न हो अथवा नुकसान उठाना पड़े। इस लिए विचार कर धीरजके साथ काम लेना उचित है । इत्यादिक बातें उस पत्रमें मैंने लिखी थी । यह प्रयत्न इस रीतिसे किया था कि इसका कुछ असर हो; यद्यपि मैं जानता हूँ कि उसके अनुसार चलना भाई नगीनदासके लिए कठिन है । सीरीमें लाभकी जगह नुकसानका मुझे विशेष भय है । कल तुम्हारा भी पत्र मिला । तुम्हारे विचार भी ऐसे ही जान पड़े। मैंने तुम्हारे पन आनेके पहले ही पत्र डाकमें डलवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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