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________________ परिचय । बात यह है कि जहाँ जरा ही कष्ट हुआ कि लोग कितने ही लाभके व्यापारोंको भी धूलमें मिला देते हैं । इस पर उनका ध्यान न जाय तब क्या भी क्या जाये ? कुछ भी विचार, धीरज और सिलसिलेसे काम किया जाय तो उसमें लाभ ही होता है; परन्तु सबके ऐसे एकरूप परिणाम नहीं हैं और मुख्य काम-काज करनेवालेका हेतु भी वैसा नहीं है। और इसी प्रकार सबको सँभल कर चलनेके लिए कहा जाय तो वे मानेंगे नहीं । तब ऐसे मौकों पर फिर विचार कर चलनेके लिए बाध्य होना पडता है। और यह बात सबको रुचना कठिन है। यह कोई व्यापार न करनेकी बात नहीं है, किन्तु व्यापार एक अच्छे रूपमें आ जाय इसके लिए प्रयत्न है। बहुधा करके कँवार सुदी १० को बम्बई आनेका विचार है। यह पत्र एक दूसरेके मनको दुखाने अथवा चलते हुए काममें रोड़ा अटकानेके अभिप्रायसे नहीं लिखा है । परन्तु इस परसे हम सब व्यापारमें उपयोग रक्खेंगे तो यह मार्ग अन्तमें लाभकारक ही होगा। बहुत तेजीमें रहने या बहुत ऊँचे भाव पर खरीदी करनेका परिणाम प्रायः विषम ही होता है, उससे कदाचित् ही लाभ होता है। और इसके सिवाय यदि स्वाभाविक बजारकी रुख पर काम किया जाय तो वह काम सदाके लिए एक मजबूत पाये पर चल सकता है। हम लोगोंमें जो यह कल्पना रहती है कि धीरज रखनेसे फिर माल नहीं मिलता, एक रीतिसे यह ठीक है; परन्तु इससे उस धीरजको छोड़ देना भी उचित नहीं कि जिससे फिर बिना सोचे-विचारे तेज भावमें भी खरीद करते ही चले जाएँ और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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