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________________ श्रीमदू राजचन्द्र यह जान पड़ता है कि स्व-पर-हितके लिए ही उन्होंने यह योजना की होगी। श्रीमद् राजचंद्र' ग्रन्थके देखनेसे जान पड़ता है कि उनकी आन्तरङ्गिक इच्छा सदा यह रहती थी कि वे परिग्रहको छोड़ें । स्वर्गीय प्रसिद्ध वेदान्ती श्रीयुत मनसुखराम सूर्यराम त्रिपाठीके साथ जो उनका पत्रव्यवहार हुआ था उसमें सं० १९४५ श्रावण वदी ३ के एक पत्र में उन्होंने लिखा था कि "सब शास्त्रोंके उपदेशका, क्रियाका, ज्ञानका, योगका तथा भाषाओंकी जानकारीका प्रयोजन अपने स्वरूपके लाभके लिए है। और ये सब बातें आत्मामें लीन होकर की जाये तभी अपने स्वरूपकी प्राप्ति होना संभव है। परन्तु इन बातोंके प्राप्त करनेके लिए सबसे पहले सर्व-संग-परिग्रह के त्यागकी आवश्यकता है । सहज-समाधिकी प्राप्ति केवल निर्जन स्थान या योग-धारणसे नहीं हो सकती; किन्तु सर्व-संगके परित्याग करनेसे ही संभव है । एक-देश संगका त्याग भी किया जाता है, पर उससे उसकी प्राप्ति अनिश्चित है—हो भी और न भी हो। जब तक पूर्व कर्मोके उदयसे गृह-वास भोगना बाकी है तब तक धर्म, अर्थ और कामका सेवन करना चाहिए; परन्तु वह इस तरह कि विषय-भोगोंके प्रति दिनोदिन उदासीनता बढ़ती ही चली जाये । बाह्यमें गृहस्थ होने पर भी अन्तरंगमें निग्रंथ होना चाहिए; *और जहाँ ऐसा होता है वहीं सब सिद्धियाँ रहती हैं। * गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥ -रत्नकरंड श्रावकाचार । अर्थात् वह गृहस्थ मोक्षमार्गी है जो कि निर्मोही है; किन्तु मोही मुनि मोक्षमार्गी नहीं हो सकता । अतएव उस मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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