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परिचय ।
राजचंद्रकी अवस्था उन्नीस वर्षकी थी । उनका ब्याह इसी वर्ष हुआ था। और इसी कारण फिर उन्हें अपनी जन्मभूमि ववाणियामें रुक जाना पड़ा था। इसके बाद लगभग १९४५ में राजचंद्र बम्बई आये । इस समय उनकी वृत्तिमें एकदम परिवर्तन देख पड़ा । छोटीसी अवस्थामें जो असाधारण, आश्चर्य-पूर्ण शक्तियोंके धारक समझे गये, अनेक बड़ी बड़ी सभाओंमें जिन्हें मान मिला और बड़े बड़े प्रतिष्ठित पुरुषोंसे जिनका परिचय हुआ उनके विचारों में सहसा एक बड़ा भारी परिवर्तन हो गया। अबसे उनने निश्चय कर लिया कि जहाँ तक वन पड़ेगा किसी मनुष्यसे मैं न मिलूंगा; शतावधानके प्रयोग न करूँगा; और न कोई पुस्तक वगैरह लिख कर उसे प्रकाशित करूँगा। उनके इस परिवर्तनको देख कर यह कहना अनुचित न होगा कि वे एक प्रकारसे जन-समागमसे अन्तर्हित ही हो गये । इस प्रकार एकाएक उन्होंने जन-समागमसे अन्तर्हित होनेका क्यों विचार किया, इसके लिए पहले एक जगह उनके सामान्य मनोरथोंका उल्लेख किया गया है। इस लिए बहुत संभव है कि उनकी इच्छा अपने उन मनोरथोंके पूर्ण करनेकी हो गई हो । और उनके सारे जीवनकी घटनाओंके पढ़नेसे तो यह बात और भी दृढ़ हो जाती है । यदि उनके मनोरथोंका पृथक्करण करके देखा जाय तो जान पड़ेगा कि उनकी प्रबल इच्छा ख-परके हित साधन करनेकी थी । परन्तु साथ ही उनकी यह धारणा थी कि जब तक स्वात्म-हित साधन न किया जाय तब तक परहित-साधनकी ओर ध्यान देना अपना और परका अहित करना है। और स्वात्म-हित साधनके बाद परहितके लिए प्रयत्न करना भी सब साधनोंके ठीक ठीक मिल जाने पर ही होता है । यही कारण है कि उन्हें जन-समागमसे अलग रहना उचित जान पड़ा।
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