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श्रीमद् राजचन्द्र
अभ्यास किया है वे जानते होंगे कि मन जिस विषय में लगा रहता है वह विषय बातों में आये बिना नहीं रहता । विज्ञानके इस सिद्धान्तको यदि स्वीकार किया जाय और वह अनुभवसे स्वीकार करना पड़ेगा तो यह मान लेना पड़ेगा कि श्रीमद् राजचंद्रका मन भी वैराग्यमें लग रहा था और इसी लिए उनके अन्तरंगमें जो वैराग्य समा रहा था वह मात्र भाषा के आकार में बाहर आया था ।
श्रीमद् राजचंद्रने अपने जीवन-संबन्धी वृत्तान्तको लिखते हुए एक कवितामें लिखा है
ओगणसरों ने बेतालीसे अद्भुत
वैराग्य धार रे;
अर्थात् १९४२ में उनमें वैराग्यकी धारा बहती थी । इसी बात की पुष्टि इसी वर्ष लिखे हुए 'भावनाबोध' से भी होती है । उसका एक पथ यहाँ उद्धृत किया जाता है ।
ना मारां तन रूप - कान्ति-युवती, ना पुत्रके भ्रात ना; ना मारां भृत स्नेहिओ स्वजनके ना गोत्रके ज्ञात ना । ना मारां धन-धाम-यौवन-धरा, ए मोह अज्ञत्वना;
रे रे जीव विचार एम ज सदा, अन्यत्वदा भावना || ये सब बातें साधारणतया श्रीमद् राजचंद्रकी बीस वर्षकी उम्र के भी - तरकी हैं ।
अब इस विषय पर विचार किया जाता है कि सर चार्ल्स सारजंटने श्रीमद् राजचंद्रसे विलायत चलनेके लिए आग्रह किया था और वह उन्हें पसन्द नहीं पड़ा । इसके बाद उनका जीवन किस प्रकार बीता । उस समय
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